Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 422
________________ पंचम खण्ड ३९१ जीवन के हित-साधन के साथ साथ अपने आपको सुखसम्पन्न बनाते हैं । जिस प्रकार केवल भाग्य के ऊपर आधार रखनेवाला मनुष्य पुरुषार्थ के अभाव में अपने जीवन का विकास नहीं कर सकता है और अकर्मण्यता के कारण नि:सत्त्व बनकर अपनी जिन्दगी को किसी काम की नहीं रहने देता है उसी प्रकार जो लोग कर्म को-पूर्व कर्म को नहीं मानते वे भयंकर भ्रान्ति में गोते लगाते हैं । कर्मवाद की सिद्धि और उपयोगिता के बारे में पहले विवेचन किया जा चुका है। कर्मवाद की अवगणना करनेवाले मनुष्य को आत्मा जैसे विशिष्ट तत्त्व की प्रतीति न होने से विपत्ति के समय उसे सहने में वह समभाव नहीं रख सकता । प्राणीवात्सल्य का विशद भाव उसके लिये दुर्लभ हो जाने से सामान्य विरोध के समय भी वह आकुल-व्याकुल हो जाता है । ऐसे लोगों के लिये उदात्त शान्तभाव तथा प्रसन्नभाव दुर्लभ हो जाते हैं । कल्याणसाधन की मूल भूमिका-सच्ची भूमिका से वह अज्ञात होने से अपना सच्चा जीवनविकास साधना उसके लिये अशक्य और दुर्घट बन जाता है। 'नियति' का बल अदम्य है । आगे कहा उस तरह, अचानक लाभ देनेवाले अथवा अन्तराय डालनेवाले कर्म को 'नियति' कह सकते हैं । वह पुरुषार्थ के द्वारा अनिवार्य नहीं है । उसकी इस विशेषता-नियतता के कारण उसका पूर्वकर्म से पृथक् निर्देश किया गया होगा; क्योंकि दूसरे पूर्वकर्म तो पुरुषार्थ द्वारा हटाए भी जा सकते हैं । तृतीय खण्ड में बतलाया गया है उस तरह, हमें यह जान लेना चाहिए कि 'कर्म' के इस सुगूढ, अगम्य और अगोचर कारखाने में अनेक प्रकार के कर्म तैयार होते हैं । सभी कर्म 'निकाचित' (अनिवार्य) प्रकार के नहीं होते । ऐसे कर्म तो खजाने में बहुत थोड़े होते हैं । बहुत से कर्म और तज्जन्य विघ्न ऐसे होते हैं कि यदि सुयोग्य प्रयत्न किया जाय तो उनका छेदनभेदन हो सकता है। अतः यदि कोई कार्य सिद्ध न हो तो इससे ऐसा न मान लेना चाहिए कि यह कार्य मेरे नसीब में है ही नहीं । हमें हमारे कर्मों के आवरण और उनके प्रकारों की तनिक भी खबर नहीं है। इसलिये उद्यम करने पर भी यदि कार्य सिद्ध न होता हो तो उसे अनिवार्य कर्म से आवृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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