Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

View full book text
Previous | Next

Page 429
________________ ३९८ जैनदर्शन मिष्टान्न खानेवाले दो मनुष्यों में से एक विषयासक्ति से खाता है और दूसरा जीवनसाधन के उदात्त हेतु को सम्मुख रखकर खाता है । इन दो मनुष्यों की भोजन की प्रवृत्ति एक जैसी—होने पर भी पहला अविवेकी है, अतः वह मोहराग के कारण कर्मबन्ध करता है, जबकी दूसरा विवेकी होने से अनासक्ति के तेजोबल के कारण खाते-खाते भी अपने आन्तरिक जीवन को ऊर्ध्वगामी रखता है । इसी प्रकार, दो मनुष्य पवित्र तीर्थभूमि की यात्रा के लिये जाते हैं। इनमें से एक सावधानी के साथ (उपयोग-यतनापूर्वक) तथा सद्विचार में विहरता है, जबकि दूसरा उपयोग रखे बिना प्रमत्तभाव से तथा मोहमाया के विचारों में घूमता फिरता है । इस तरह तीर्थयात्रा एक के लिये कर्मबन्धक होती है, जबकि दूसरे के लिये श्रेयस्कर सिद्ध होती है । देवमन्दिर में देवदर्शन करनेवाले सबके मनोभाव एक से नहीं होते । अतः जो पवित्र भावना से दर्शन करते हैं वे पुण्य का उपाजन करते हैं और मोहमायायुक्त विचार करने वाले अथवा मलिनवृत्ति रखने वाले पाप की गठरी बाँधकर देवमन्दिर में से निकलते हैं । इस प्रकार देवदर्शन एक के लिये श्रेयस्कर और दूसरे के लिये पापबन्धक बनता है । इस तरह, उपर्युक्त 'आचारांग' सूत्र के वचन का मर्म समझा जा सकता है । दूसरी तरह देखने पर ज्ञानी विवेकी मनुष्य सामान्य नियमरूप से विहित विधानों के साथ उपयुक्त विचार किये बिना चिपका नहीं रहता । वह तो किसी भी अवसर पर देश-कालादि की परिस्थिति का विचार करके अपने लिये क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है इसका निर्णय करके उसके अनुसार व्यवहार करता है । इसके विपरीत अज्ञानी अविवेकी मनुष्य समयस्थिति का विचार किये बिना सामान्य नियमरूप से जो कर्तव्य-अकर्तव्य ठहराए गए हैं उनसे आँखे मूंद कर चिपका रहता है । इसका परिणाम यह होता है कि धर्म का आचरण करने की इच्छा होने पर भी वह अधर्म का आचरण कर बैठता है। अन्न-जल के त्यागी तपस्वी को पानी की सख्त प्यास लगी और पानी की पुकार करता हुआ बुरी तरह तडपने लगा । उस समय उसे पानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458