Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 427
________________ ३९६ जैनदर्शन हो सकती है। ऐसा सज्जन अपनी पत्नी अथवा अपने पति, अपने लौकरचाकर अथवा सेठ, अपने ग्राहक अथवा अपने सगे-सम्बन्धी अथवा अपने सम्पर्क में आने वाले किसी भी मनुष्य के साथ नीति और वात्सल्य से सुवासित व्यवहार रखेगा । यहाँ पर हम खुद ही सोच सकते हैं कि ऐसा उमदा व्यवहार चित्त की उच्चता तथा उदात्तता कितनी सधी हो तब मूर्तिमन्त बन सकता है ! वस्तुतः यही सच्ची कल्याणयात्रा है । निश्चय एवं व्यवहार दोनों को समुचित तथा सुसंगत रखने का ज्ञानी महात्माओं का सदुपदेश यही आदेश करता है कि मनुष्य को अपना आन्तर एवं बाह्य दोनों प्रकार का जीवन उच्च तथा विशुद्ध रखना चाहिए । जैन 'आचारांग' के चतुर्थ अध्यय के दूसरे उद्देश के प्रारम्भ में अनेकान्तदृष्टि का उद्बोधन करने वाला सूत्र है कि 'जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा ।' अर्थात्---जो कर्मबन्ध के स्थान है वे कर्मनिर्जरा के स्थान बनते हैं और जो कर्मनिर्जरा के स्थान हैं वे कर्मबन्ध के स्थान बनते हैं । मतलब कि जो कार्य (प्रवृत्ति) अज्ञानी, अविवेकी के लिये कर्मबन्धक होता है वही कार्य (प्रवृत्ति) ज्ञानी के लिये कर्मनिर्जरारूप होता है । इसके विपरीत जो कार्य ज्ञानी के लिये कर्मनिर्जरा का कारण होता है वही अज्ञानी एवं अविवेकी के लिये कर्मबन्धक होता है । ज्ञानी जो कुछ प्रवृत्ति करता है वह प्राणीवर्ग के हित के लिये तथा उनके हित की बुद्धि से करता है । उसमें न तो अहंकारवृत्ति होती है और न उपकारबुद्धि अथवा यश या अन्य प्रकार के बदले की लालसा । वह खाता है, पीता है, सुख-सुविधा का उपभोग भी करता है तथा अपने आरोग्य की सुरक्षा भी करता है और यह सब वह इसलिये करता है कि उनसे उसकी अपनी आत्मसमाधि स्वस्थ रहे और साथ ही साथ अन्य प्राणियों का हित अधिक से अधिक साधा जा सके ऐसी अपनी मानसिक एवं शारीरिक कार्यक्षमता भी बनी रहे । परार्थ-साधना उसका स्वभाव बन जाता है और मनुष्य जब अपने स्वभाव के अनुसार बरताव करता है तब उसे किसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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