Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 425
________________ जैनदर्शन अर्थात् — क्रिया बिना का ज्ञान मरा हुआ समझना । इसी प्रकार ज्ञानहीन क्रिया भी मृतप्राय ही समझना । उदाहरणर्थ, देखने पर भी लंगड़ा और दौड़ने पर भी अन्धा दोनों जलकर मर गये । इसी उदाहरण को नीचे की गाथा स्पष्ट करती है संजोगसिद्धीइ फलं वयंति न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगु य वणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ ११६५॥ — विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यकनिर्युक्ति ३९४ अर्थात् — ज्ञान और क्रिया इन दोनों के संयोग से ही फलसिद्धि होती है । एक पहिए से रथ नहीं चलता । वन में दावानल लगने पर अन्धे और लंगड़े दोनों ने एक-दूसरे का सहयोग किया तो वे दोनों बचकर नगर में पहुँच सके । [ अन्धे के कन्धे पर लंगड़ा बैठा और लंगड़े के कहने के अनुसार अन्धा चला । इस तरह एक-दूसरे का सहयोग करने से वे दोनों बच गए । यदि उन दोनों ने एक-दूसरे के साथ सहयोग न किया होता तो वे दोनों आग में भस्मीभूत हो जाते । इस तरह पंगुसदृश ज्ञान और अन्ध समान क्रिया ये दोनों परस्पर मिलें- सुसंगत बनें तो सफलता प्राप्त की जा सकती है । परन्तु यदि ये दोनों अलग-अलग रहें- संयुक्त न हों तो ये दोनों हतप्राय हैं, सिद्धिदायक नहीं हो सकते ।] अब निश्चय - व्यवहारदृष्टि को देखें । जीव एवं पुद्गल उनके व्यावहारिक स्वरूप में दृष्टिगम्य हो सकते हैं । पुद्गल मूलस्वरूप में परमाणुस्वरूप है, फिर भी जब अनन्तानन्त परमाणु एकत्रित होकर स्कन्धरूप बनते हैं तब वे हमारे अनुभव में आते हैं । जीव भी अपने शुद्ध स्वरूप में इन्द्रियातीत होने से हमारे अनुभव में नहीं आ सकता, किन्तु व्यावहारिक रूप में विद्यमान जीव पुद्गल के साथ संयुक्त होने से हमारे अनुभव में आ सकता है । जीव अपने वर्तमान अशुद्ध (कार्मिकपुद्गलमिश्रित) रूप में से अशुद्धि को दूर करके शुद्ध स्वरूप प्राप्त करे - यही जीव का अन्तिम ध्येय माना गया है । यहाँ पर हम देख सकते हैं कि जो दृष्टि वस्तु के मूल स्वरूप का, वस्तु की तात्त्विक अथवा शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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