Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 431
________________ ४०० जैनदर्शन अर्थात् उस समय की स्थानविषयक अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता, 'काल' अर्थात् उस समय की ऋतु अथवा वातावरण की अनुकूलता या प्रतिकूलता और 'भाव' अर्थात् पात्र की वर्तमान कार्यक्षम स्थिति । इस द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव में समाए हुए अर्थ को संक्षेप में व्यक्त करने के लिये स्थिति संयोग अथवा परिस्थिति आदि जैसे दूसरे शब्दों का प्रयोग किया जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र ने सामान्य नियम के रूप से-उत्सर्गमार्ग के रूप से एक ओर, अमुक वस्तु करनी चाहिए अथवा अमुक तरह का बरताव रखना चाहिए और दूसरी ओर अमुक वस्तु न करनी चाहिए अथवा अमुक प्रकार का व्यवहार न करना चाहिए--ऐसा ठहराया हो, फिर भी ऐसा विधि अथवा निषेध वावय सर्वदा के लिये और सब परिस्थितियों में लागू पड़ता है। ऐसा समझना एकान्त है, अनुचित एवं भ्रान्त है । अमुक अवसर पर अमुक स्थान में अमुक बात करनी चाहिए या नहीं, वह योग्य है अथवा अयोग्य है, इसका निर्णय तत्कालीन परिस्थिति [उस समय के द्रव्या-क्षेत्र-काल-भाव] देखकर करना चाहिए । देश कालादि की परिस्थिति बदलने पर, जो बात सामान्य नियम रूप से कर्तव्य बतलाई गई हो वह परिविर्तित परिस्थिति में अकर्तव्य बन जाती है और जो बात अकर्तव्य बतलाई हो वह परिवर्तित परिस्थिति में कर्तव्यरूप बन जाती है । इसी का नाम अपवाद मार्ग है। इसमें नियम का भंग नहीं होता, परन्तु नियम से जो उद्देश सिद्ध करने का होता है वही उद्देश अथवा तत्सदृश दूसरा कोई उच्च उद्देश, परिवर्तित परिस्थिति में अपवादमार्ग का अवलम्बन लेकर, पूर्ण किया जाता है । अवश्य ही, नियम का मार्ग ग्रहण न करके अपवाद का आश्रय लेते समय अत्यन्त सतर्कता रखने की आवश्यकता है । जहाँ सच्चाई है और साथ ही सतर्कता है वहाँ अपवाद का आश्रय अघटितरूप से नहीं लिया जाता । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव या उत्सर्ग-अपवाद के बारे में नीचे का श्लोक द्रष्टव्य है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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