Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 432
________________ पंचम खण्ड ४०१ उत्पद्यते हि सावस्था देशकालामयान प्रति । यस्यामकार्यं कार्यं स्यात् कर्म कार्यं च वर्जयेत् ॥१॥ --चरकसंहिता,अन्तिम सिद्धिस्थान, दूसरा अध्याय, श्लो. २६. अर्थात्--देश, काल और रोग के कारण ऐसी अवस्था उपस्थित होती है जबकि अकार्य कार्य बन जाता है और कार्य अकार्य बन जाने से त्याज्य हो जाता है । अपवाद औत्सर्गिक मार्ग का पोषक ही होता है, घातक नहीं, आपवादिक विधान की सहायता से ही औत्सर्गिक मार्ग विकास कर सकता है । ये दोनों मिल करके ही मूल ध्येय को सिद्ध कर सकते हैं । उदाहरणार्थ, भोजन-पान जीवन की रक्षा एवं पुष्टि के लिये ही है, परन्तु यह भी देखा जाता है कि कभी-कभी तो भोजन-पान का त्याग ही जीवन को बचा लेता है । इस तरह, ऊपर-ऊपर से परस्पर विरूद्ध दिखाई देनेवाले भी जीवनव्यवहार जब एकलक्ष्यगामी होते हैं तब वे उत्सर्ग--अपवाद की कोटी में आते हैं । उत्सर्ग को यदि आत्मा कहें तो अपवाद को देह कहना चाहिए । इन दोनों का सम्मिलित उद्देश संवाटी जीवन जीना है ! उत्सर्ग एवं अपवाद इन दोनो मार्गों का लक्ष्य एक ही होता है । जिस कार्य के लिये उत्सर्ग का निर्देश किया जाता है उसी कार्य के लिये १. आ. हरिभद्र के सत्ताईसवें अष्टक के पाँचवें श्लोक की वृत्ति में जिनेश्वरसूरि ने यह श्लोक उद्धृत किया है और बृहत्कल्पसूत्र की टीका में चौथे भाग के ९३६वें पृष्ठ में मलयगिरि ने उद्धृत किया है । हेमचन्द्राचार्य की द्वात्रिंशिका के ११वें श्लोक पर की मल्लिषेणसूरि की 'स्याद्वादमञ्जरी' टीका में इस श्लोक को उद्धृत करके उसके आधार पर कहा गया है कि आयुर्वेद के अनुसार जिस रोग में जिस परिस्थिति के अनुसार जो वस्तु अपथ्य होती है वही वस्तु उसी रोग में दूसरी अवस्था के समय पथ्यरूप होती है । लङ्घन अमुक ज्वर में उपयोगी होता है, परन्तु क्षीण धातु की अवस्था में ज्वरात के लिये वह अयोग्य है । देश-कालादि की अपेक्षा से ज्वरग्रस्त के लिये भी दधिपान आदि सेव्य बनते हैं । अतः कहने का अभिप्राय यह है कि जिस अपथ्य का त्याग एक अवस्था में जिस रोग का शामक होता है वही अपथ्य भिन्न अवस्था में उसी रोग के शमन में अनुकूल हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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