Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 404
________________ पंचम खण्ड ३७३ जिस प्रकार हाथी उसके एक-एक अवयव में नहीं, किन्तु उसके सभी अवयवों में समाविष्ट है, उसी प्रकार वस्तु उसके एक अंश में नहीं, किन्तु उसके सभी अंशों के समुच्चय में रही हुई है । अतः उसके सभी अंशों का ज्ञान होने पर ही वह पूर्ण रूप से ज्ञात समझी जायगी । इसका अर्थ यह हुआ कि हाथी के मुख्य-मुख्य सभी अवयवों में हाथी को समझना जिस तरह हाथी के बारे मे पूर्ण ज्ञान कहा जाता है उसी तरह वस्तु को उसके भिन्न-भिन्न स्वरूपों में जानना उस वस्तु के बारे में पूरी समझ कही जाती है । कहने का अभिप्राय यह है कि वस्तु के एक-एक नहीं, किन्तु शक्य सभी अंशों के ज्ञान में वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान सन्निहित है । जड़ अथवा चेतन तत्त्व के अनेक अंशो को यदि बराबर समझा जाय तो दार्शनिकों में, हाथी के एकएक अंग को पकड़ कर लड़नेवाले उन लोगो की भाँति, क्या लड़ाई हो सकती है ? व्यवहार में समय एवं परिस्थिति के अनुसार कोई एक विचारमार्ग ग्रहण करना पड़ता है। व्यवहार में ऐसा ही होता है । नयदृष्टि व्यावहारिक उपयोग की वस्तु होने से जिस समय जो विचारदृष्टि योग्य अथवा अनुकूल प्रतीत होती हो उस समय वह दृष्टि (नयदृष्टि)अनेकान्तरत्न -कोष में से ग्रहण करनी होती है। 'स्याद्वाद' अथवा 'अनेकान्तवाद' एक ऐसी विशाल दृष्टिवाला वाद है, जो वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से-भिन्न-भिन्न दिशाओं से अवलोकन करता है । इस विशाल एवं व्यापक दृष्टि के अवलोकन से एकांगी दृष्टि के विचार संकुचित और अपूर्ण सिद्ध होते हैं, जबकि भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से संगत भिन्न-भिन्न (विरुद्ध दिखाई देनेवाले) विचार भी माला में मौक्तिकों की भाँति समन्वित हो जाते हैं । इसीलिये अनेकान्तवाद वस्तुतः समन्वयकला होने से समन्वयवाद है और इसका परिणाम अपूर्ण दृष्टिओं से पैदा होनेवाले कलह को शान्त करके साम्यवाद (समवाद-समभाव) के सर्जन में आता है; क्योंकि एक दृष्टि के आधार पर एकतरफ़ा अभिप्राय रखनेवाले को जब दूसरी दृष्टि का ख्याल आता है तब उसकी एकतरफ़ा ज़िद और अभिनिवेश दूर हो जाते हैं । अवश्य ही, एक-दूसरे के मानस को समाहित बनाकर परस्पर माधुर्यपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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