Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 407
________________ ३७६ जैनदर्शन (समानधर्मी) अन्य चेतन तत्त्वों (जीवों) के साथ के व्यवहार में प्रामाणिक न रहकर अनीति-अन्यायमय बरताव रखता हूँ यह मेरे लिये योग्य नहीं है । मैं जड़ तत्त्व के कलुषित मोहात्मक बन्धन में गिरकर और उसकी गुलामी स्वीकार करके दुःखी होता हूँ औ दूसरे को दुःखी करता हूँ। अतः मोह के इस दुःखद बन्धन को मुझे तोड़ना चाहिए । इस तरह अद्वैत, द्वैत दोनों वादों में से एक-जैसा ही कल्याणरूप फलितार्थ निकलता है। अनेकान्त के बारे में अपनी 'अनेकान्तभूति' नाम की द्वात्रिंशिका में से कुछ श्लोक मैं यहाँ पर उदधृत करता हूँ द्वैताद्वैतावादद्वैतं यथार्थं जड़चेतनाभ्यामद्वैतमप्यात्मविकासदृष्ट्या । इत्थं द्वयं तत् पटु संगमय्य शान्तस्त्वया तारक ! तद्विरोधः ॥९॥ –जगत् जड़ और चेतन इस प्रकार दो तत्त्वरूप होने से द्वैतवाद यथार्थ है । इसी प्रकार आराध्य तत्त्व एकमात्र आत्मतत्व होने से उसके (आत्मा के) विकास-साधन की दृष्टि से [उसकी विकास-साधना पर वजन देने के लिये] अद्वैत वाद का निर्देश भी यथार्थ है । इस तरह इन दोनों की कुशल संगति करके हे तारक प्रभो ! तुमने इनका विरोध शान्त कर दिया है। एकानेकात्मवादएकात्मवादो हि समात्मवादः स सर्वभूतैः समभाववादः । इत्थं सुधीर्भावयति श्रितोऽपि नानात्मवादं परमार्थसिद्धम् ॥१०॥ -एकात्मवाद का हमें तनिक भी विरोध नहीं है, परन्तु आत्मा व्यक्तिशः नाना होने से 'एकात्मवाद' का अर्थ समानात्मवाद करना उचित है । [समानात्मवाद यानी सब आत्मा मूलरूप से एक ही-एक ही सरीखे स्वरूप के हैं ऐसा सिद्धान्त ।] यह वाद सब प्राणियों के साथ समभाव स्थापित करने का पाठ सिखाता है बुद्धिशाली पुरुष अनेकात्मवाद का (जीव भिन्न-भिन्न हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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