Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 411
________________ ३८० जैनदर्शन सकता है । क्रियावादन कर्मकाण्डाश्रयदुर्ग्रहस्याऽनेकान्तदर्शी ददतेऽवकाशम् । सर्वाः क्रियाः शुद्धिभृतः सुयोगाः शुभावहाः, कोऽत्र सलां विरोधः ? ॥२५॥ -अनेकान्तदर्शी क्रियाकाण्ड के बारे में दुराग्रह अथवा हठ नहीं करता । कोई भी क्रिया यदि शुद्ध हो, उसमें मन-वचन-काय के योग यदि शुद्ध एवं शुभ रहते हों तो वह कल्याणकारक है। इसमें किस समझदार व्यक्ति का विरोध होगा ? दार्शनिक मत-मतान्तरों का विस्तार अत्यन्त विशाल एवं गम्भीर है । कोई आत्मवादी है तो कोई अनात्मवादी है । आत्मवादी में भी कोई एकात्मवादी है तो कोई नानात्मवादी है । इसी प्रकार ईश्वरवाद के मत में भी अनेक विभिन्नताएँ हैं । ये सब मन्तव्य एक-दूसरे के साथ टकराते रहते हैं—वाद विवाद के विषय बने रहते हैं ऐसा होने पर भी विश्व की दृष्टि के आगे एक तत्त्व सुनिश्चित है और वह है सब प्राणधारियों में---समग्र सजीव शरीरों में होनेवाला 'मैं' का संवेदन । इस सर्वानुभवसिद्ध और सर्वमान्य तत्त्व के आधार पर 'जीओ और जीने दो' का उपदेश सर्वग्राह्य बना है । कट्टर से कट्टर कही जानेवाली नास्तिक संस्था भी इस उपदेश को मान्य रखती है और इसे अपना कर्तव्य समझती है । इस उपदेश का विस्तार मानव-समाज में इतना फैला हुआ है कि दूसरे के हित का बलिदान करके अपना हित साधना अनीति है, दोष है, पाप है, ऐसा मनुष्य समझता है । वह यह बात भी समझता है कि 'मैं' का संवेदन सब प्राणियों में एक-जैसा होने से सब को परस्पर सद्भाव एवं मैत्रीपूर्वक रहना और बरतना चाहिए । इस तरह का बरताव रखने में ही सबका हित और सुख रहा हुआ है । संक्षेप में, 'मैं' के सर्वसामान्य तत्त्व के आधार पर समूचा नैतिकस्तर और सदाचार नीति व्यवस्थित हुई है । जो मनुष्य 'अखा कहे अन्धेरा कुआँ' के अनुसार दार्शनिक चर्चाओं तथा कल्पनाओं से घबराकर विषम झंझावात-से प्रतीत होनेवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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