Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 389
________________ जैनदर्शन ३५८ हैं । यही है पानी के बारे में 'द्रव्याथिकनय' । इससे विपरीत जब उपर्युक्त विशेषताओं की ओर ध्यान जाता है तब वह विचार पानी की विशेषताओं का होने से उसे पानीविषयक 'पर्यायार्थिक नय' कह सकते हैं । इस उदारहण से ज्ञात हो सकता है कि सब भौतिक पदार्थों के बारे में सामान्यगामी और विशेषगामी विचार उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों काल के अपार विस्तार पर फैले हुए किसी एक ही आत्मा आदि वस्तु के बारे में भी सामान्यगामी और विशेषगामी विचार उत्पन्न हो सकते हैं । काल एवं अवस्थाभेद के विवर्तों की ओर लक्ष न देकर यदि केवल शुद्ध चेतना की ओर लक्ष दिया जाय तो वह आत्मा का द्रव्यार्थिक नय कहा जायगा और उस चेतना की देश - कालादि - कृत विविध दशाओं की ओर यदि लक्ष दिया जाय तो वह आत्मा का पर्यायार्थिक नय कहा जायगा । पर्याय के बिना द्रव्य नहीं होता और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं होता । द्रव्य - पर्याय का सम्बन्ध भिन्नाभिन्न है । द्रव्य का पर्यायव्यक्ति के साथ का सम्बन्ध भिन्न होने पर भी पर्यायप्रवाह की अपेक्षा से अभिन्न भी है । अब अधिक विवेचना के लिये नय के सात प्रकार बतलाए जाते हैं । वे ये हैं : नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत | (१) नैगम - निगम अर्थात् कल्पना । इससे होनेवाला व्यवहार ' नैगम' कहलाता है । इसके मुख्य तीन भेद हैं : संकल्पनैगम, अंशनैगम और आरोपनैगम । (क) संकल्पनैगम — एक मनुष्य बम्बई जाने के लिये तैयार होकर खड़ा है । उस समय उसका कोई मित्र वहाँ आकर पूछता है कि 'क्या करते हो ? तब वह उत्तर देता है कि 'बम्बई जाता हूँ ।' अथवा एक मनुष्य ने चोरी करने का संकल्प किया, तो उसने चोरी की है ऐसा धर्मशास्त्र कहेगा । इस नय के हिसाब से 'क्रियामाणं कृतम्'किया जाता काम किया हुआ कहलाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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