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की दृष्टि से कृतप्रणाश और अकृतभोग के दोष उपस्थित होते हैं। उनकी दृष्टि में आत्मा की अमरता या नित्यता की धारणा के अभाव में कर्मसिद्धान्त काफी निर्बल पड़ जाता है। इस प्रकार आत्मा की अमरता की धारणा कर्म-सिद्धान्त की अनिवार्य फलश्रुति है।
४. कर्म-सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि आचार के क्षेत्र में शुभ और अशुभ ऐसी दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। साथ ही शुभ प्रवृत्ति का फल शुभ और अशुभ प्रवृत्ति का फल अशुभ होता है।
५. कर्म-सिद्धान्त चेतन आत्म-तत्त्व को प्रभावित करने वाली प्रत्येक घटना एवं अनुभूति के कारण की खोज बाह्य जगत् में नहीं करता, वरन् आन्तरिक जगत् में करता है। वह स्वयं चेतना में ही उसके कारण को खोजने की कोशिश करता है। ३. कर्म-सिद्धान्त का उद्भव
कर्म-सिद्धान्त का उद्भव कैसा हुआ, यह विचारणीय विषय है। भारतीय चिन्तन की जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में कर्मसिद्धान्त का विकास तो हुआ है, लेकिन उसके सर्वांगीण विकास का श्रेय
जैन परम्परा को ही है। पं० सुखलालजी का कथन है कि 'यद्यपि वैदिक साहित्य तथा बौद्ध साहित्य में कर्मसम्बन्धी विचार हैं, पर वह इतना अल्प है कि उसका कोई खास ग्रन्थ उस साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता। उसके विपरीत जैन दर्शन में कर्मसम्बन्धी विचार सूक्ष्म, व्यवस्थित और अति विस्तृत हैं। वैदिक परम्परा की प्रारम्भिक अवस्था में उपनिषद्काल तक कोई ठोस कर्म-सिद्धान्त नहीं बन पाया था, यद्यपि वैदिक साहित्य में ऋत् के रूप में उसका अस्पष्ट निर्देश अवश्य उपलब्ध है। प्रो० मालवणिया का कथन है कि 'आधनिक विद्वानों में इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि उपनिषदों के पूर्वकालीन वैदिक साहित्य में कर्म या अदृष्ट की कल्पना का स्पष्ट रूप दिखाई नहीं देता। कर्म कारण है ऐसा वाद भी उपनिषदों का सर्वसम्मतवाद हो, यह भी नहीं कहा जा सकता।" वैदिक साहित्य कर्म-सिद्धान्त
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