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संख्या लगभग ४००० है । यहाँ पर लगभग १०,००० हस्तप्रतों की जेरोक्स कॉपियाँ उपलब्ध हैं जिन की पत्र-संख्या ४६००० प्रायः हो गयी है । इस सस्था का मुख्य आकर्षण सांस्कृतिक संग्रहालय रहा है। कस्तुरभाई एवं उनके परिवार के लोगों की ओर से भेंट में दी गयी बहुत सी पुरातात्त्विक वस्तुओं को इस संग्रहलाय में संग्रहीत किया गया है । सुन्दर चित्र, कलाकृतियाँ, प्राचीन वस्त्र-आभूषण, सजावट की वस्तुएँ, हस्तप्रत (जिनमें बारहवीं शती की चित्रयुक्त हस्तप्रत भी है) आदि प्रायः चार सौ से अधिक वस्तुएँ इस संग्रहालय में प्रदर्शित हैं जो प्राचीन भारतीय जीवन और संस्कृति की मोहक झलक प्रस्तुत करती हैं। इस सांस्कृतिक संग्रहालय का सन् १९८३ में एक नये भवन में स्थानान्तरण कर दिया गया था जो अब ला. द. म्युजियम के नाम से सुविख्यात है ।
पुराने प्रेमाभाई हॉल का स्थापत्य कस्तूरभाई को कला की दृष्टि से खटक रहा था। उन्होंने लगभग छप्पन लाख रूपये खर्च करके उसका नव संस्करण करवाया जिसमें बत्तीस लाख का दान कस्तूरभाई परिवार एवं लालभाई ग्रुप के उद्योग समूह ने दिया ।
विख्यात इन्जीनियर लूई साहबने कस्तूरभाई को कुदरती सूझ वाले इन्जीनियर कहा था । उन्होंने अपनी स्वयं की निगरानी में राणकपुर, देलवाडा, शत्रंजय और तारं गातीर्थ के मन्दिरों के शिल्प-स्थापत्य का जो जीर्णोद्धार करवाया है उसे देखते हुए लूई का कथन सही मालूम पड़ता है । सेठ आनन्दजी कल्याणजी की पेढी के अध्यक्ष के रूप मे उन्हेांने अनेक जीर्ण तीर्थस्थलों का कलात्मक दृष्टि से जीर्णोद्धार करवाया । उन्होंने उपेक्षित राणकपुर तीर्थ का पुनरुद्धार करके उसे रमणीय बना दिया । उन्होंने बहुत ही परिश्रम उठाकर पुरानी शिल्प कला को पुनर्जीवित किया । देलवाडा के मन्दिर के निर्माण में जिस जाति के संगमरमर का उपयोग हुआ है उसी जाति का संगमरमर
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