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ऐसी ही है। वह अपनी ही धुन में बहता हुआ झरना है। वह अपनी आंतरिक सुगंध लेकर खिला हुआ सुमन है। क्या सुगंध का खिलना सुमन की हस्ती से भिन्न होता है? ___गीता हो या अष्टावक्र, झेन हो या कबीर या अन्य कोई भी विषय हो, ओशो रजनीश का बोलना ऐसा होता है जैसे भीतर से खिल उठे हों। हम जब उनके प्रवचन पढ़ते हैं या सुनते हैं तो किस अनुभव से गुजरते हैं? हम आशय की सीमाओं को लांघते हैं और उनकी इस
आंतरिक खिलावट का स्वाद लेते हैं। दसवें अध्याय के प्रारंभ में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "शृणु मे परमं वचः।” ओशो के वचनों को प्रवचन नहीं, परम वचन कहना अधिक उचित होगा।
ओशो के प्रवचन पढ़ना एक ध्यान प्रक्रिया है। ऐसी प्रक्रिया जो मन और मन के समस्त द्वंद्वों के पार ले जाती है। गीता कहती है, "सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।” यह ध्यान प्रक्रिया ही गीता का सार-सूत्र है। ___ जब हम ओशो रजनीश के प्रवचन पढ़ते हैं तो एक अत्यंत विद्रोही व्यक्ति से परिचित होते रहते हैं। यह विद्रोह विध्वंसक नहीं है बल्कि आत्म-अनुभूति का ही दूसरा पहलू है। कई दफे आध्यात्मिक कोटि के प्रवचनों में एक प्रचार का पुट होता है। यहां पर एक ही समीकरण होता है : श्रद्धा अर्थात बंद आंखों से की गई बुद्धिहीन स्वीकृति। ऐसा माना जाता है कि प्रश्न पूछना या चुनौती देना अध्यात्म के खिलाफ है। इसी से अध्यात्म के नाम पर गुरुडम और अंधी संप्रदाय-निष्ठा पनपती है।
ओशो रजनीश न तो कोई परंपरा का स्वीकार करते हैं न दूसरों से स्वीकार करने का आग्रह रखते हैं। प्रश्न पूछने की या चुनौती देने की मूलभूत स्वतंत्रता उनके चिंतन में अंतर्भूत ही है। यह स्वतंत्रता, यह सजगता स्वयं को खोजने की प्रक्रिया का अपरिहार्य अंग है। इस आध्यात्मिक विद्रोह की वजह से ओशो रजनीश का व्यक्तित्व विवादास्पद बन गया। जैसे ही वे परंपरागत धार्मिक विश्वासों और सांप्रदायिकता का खंडन करने लगते हैं, अनेक लोग भय से कांप उठते हैं। ___ इस तेजस्वी स्वातंत्र्य से ओशो रजनीश के समस्त प्रवचन ओत-प्रोत हैं। यह स्वातंत्र्य, अपने श्रोताओं को दी हुई ओशो रजनीश की बहुत बड़ी देन है। इस स्वातंत्र्य के प्रकाश में मैं ओशो का साहित्य पढ़ता हूं। उसे पढ़ते समय मैं निर्भय होकर प्रश्न पूछ सकता हूं। किसी भी लोकमान्य या धर्ममान्य विश्वासों के कटघरे में न उलझकर मैं उसे पढ़ता हूं। ओशो रजनीश की प्रतिभा की गरिमा इसी में है कि वे 'रजनीश' के नाम का कटघरा भी नहीं बनने देते।
दसवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं, “मैं ऋतुओं में वसंत हूं।" वसंत याने सृजन का उत्सव। वसंत याने खिलना, कुसुमित होना। इसका अर्थ हुआ, ईश्वर एक उत्सव है खिलने का, पल्लवित होने का।
ओशो रजनीश के गीता-प्रवचन पांडित्य की कवायद नहीं है, ये प्रवचन भीतर से खिल उठने का उत्सव है। -सृजन का आनंद उत्सव।
मंगेश पाडगांवकर सुप्रसिद्ध मराठी कवि