Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ ॥ अहम् ॥ श्री विजयनेमि-विज्ञान-कस्तूर-मरिसद्गुरुभ्यो नमः । ॥अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः ॥ ॥ कार्तिकलाख्यो हिन्दीभाषाऽनुवादः ॥ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज जिनेश्वर आप्त हीं हैं, इस अभिप्राय से तीर्थकर महावीर भगवान की स्तुति का प्रारम्भ करते हैं जो योगियों के भी जानने योग्य नहीं है, शब्द प्रयोग में चतुर ऐसे कवि आदि के भी वर्णन करने योग्य नहीं हैं, तथा समर्थ स्थूलसूक्ष्मग्राही–इन्द्रियबालों के भी जो परोक्ष हैं । (क्यों कि मुक्त आत्मा निर्गुण होती है। और निर्गुण पदार्थ मन, ज्ञान, वाणी, तथा इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता ।) तथा (कीर्ति आदि गुणों के क्षण क्षण में बढते रहने के कारण, सगुण अवस्था में) जो वर्धमान नाम से ख्यात हैं, ऐसे परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ ॥१॥ (यद्यपि ऐसे परमात्मा की स्तुति मेरे जैसे अल्पज्ञ से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72