Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 42
________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषाऽनुवादः १३९ की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं । ) यह सब सूत्र बहुत उत्तम बनाये हैं । (यह उपहास वाक्य है, इसलिये 'उक्तकथन अत्यन्त अप्रमाण है। ऐसा तात्पर्य है । नैयायिक लोग द्रव्य गुण कर्म सामन्य विशेष समवाय ये छौ भाव, तथा सातमा अभाव पदार्थ मानते हैं। उस में आदि के तीनों पदर्थों में रहनेबाला सत्ता नाम का महासामान्य मानते हैं । सत्ता को शेष पदार्थों में नहीं मानते । यह अयुक्त है। क्यों कि सत् का भाव ही सत्ता है। वह यदि सत्पदार्थ में नहीं रहे तो उसको सत्ता ही नहीं कह सकते । जो पदार्थ जहाँ नहीं रहे, उसको उसका भाव नहीं कहा जा सकता । इसलिये सत् पदार्थों में अमुक में सत्ता है, अमुक में नहीं, ऐसा कहना युक्तिविरुद्ध है। ॥ ८॥ (आत्मा को व्यापक मानने से ही चैतन्य को औपाधिक मानना पड़ता है, तथा मुक्तजीव को ज्ञान और आनन्द रहित मानना पड़ता है। किन्तु आत्मा व्यापक नहीं है । क्यों कि) जिस पदार्थ का कार्य जिस देश में देखाजाता है, उस की स्थिति उस देश में ही मानी जाती है। जैसे घड़ा जलसंग्रहरूप कार्य घर में करता हो तो घड़ा बाहर में नहीं रहता। इस विषय में सभी एक मत हैं। (क्यों कि कार्य के बिना भी यदि वस्तु की सत्ता,का स्वीकार किया जाय, तो आकाश कुसुम की सत्ता क्यों न मानी जाय ? । आत्मा का चैतन्य आदि कार्य शरीर में ही उपलब्ध हैं, इसलिये आत्मा शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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