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अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः
गया है। जैसे ब्रह्मण का पुत्र गौणब्राह्मण नहीं होता, वैसे ही सम्बन्ध का भी सम्बन्ध गौण नहीं माना जा सकता। तथा समवायादिसम्बन्धों से अनभिज्ञ साधारण जनों को सम्बन्ध के बिना ही धर्मधर्मी आदि की प्रतीति होती है। इसलिये दूसरे को भी धर्मधर्मी की प्रतीति के लिये सम्बन्ध अनावश्यक है। (इसलिये धर्म-धर्मी व्यवहार के लिये सामान्य विशेष में कथञ्चित् भेदा-भेद मानना हीं युक्तिसंगत है । एकाश्रय होने से कथञ्चित् अभेद, तथा सामान्य विशेष इस प्रकार पृथक् व्यवहार होने के कारण कथञ्चित् भेद अनुभव सिद्ध है। इसलिये पदार्थमात्र सामान्यविशेष नित्यानित्यादिस्वरूप हैं, यह सिद्धान्त है । ) ॥७॥
हे जिनेन्द्र ! आप के विरोधियों ने-सत्पदार्थ में भी क्वचित् ही सत्ता है, आत्मा का चैतन्य शरीररूप उपाधिजनित तथा भिन्न है, मुक्ति ज्ञानमय और आनन्दमय नहीं है । (क्यों कि आत्मा व्यापक है । यदि चैतन्य को शरीर रूप उपाधिकृत नहीं माना जाय, तो घट आदि में भी आत्मा का सम्बन्ध होने के कारण चैतन्य मानना पड़ेगा। इसलिए चैतन्य औपाधिक हीं है, तथा आत्मा से भिन्न है । मुक्त अवस्था में शरीर आदि उपाधि नहीं रहती है । इसलिये कारण के अभाव होने से कार्यरूप चैतन्य का भी अभाव हो जाता है, इसलिये आनन्द भी नहीं है। क्यों कि चैतन्य के विना आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता । अतः मुक्त अवस्था में आनन्द
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