Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 66
________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषानुवादः १६३ के अभिप्राय से समान लिङ्ग तथा सङ्ख्या बाले पर्याय शब्द एक अर्थ के वाचक हैं । किन्तु भिन्न लिङ्ग सङ्ख्या वाले नहीं । जैसे घट, कलश, ये दोनों शब्द समानार्थक हैं । किन्तु तट तटी ये दोनों समानार्थक नहीं है । समभिरूढ़ नय के अभिप्राय से प्रवृत्तिनिमित्त के भेद से शब्द भिन्न अर्थ के वाचक होते हैं । जैसे इन्द्र और शक ये दोनों समानार्थक नहीं कहे जा सकते । क्योंकि ऐश्वर्य की अपेक्षा से इन्द्र शब्द की प्रवृत्ति है, तथा शक्ति की अपेक्षा से शक्र शब्द की प्रवृत्ति है । इसलिये ऐश्वर्यशाली इन्द्र कहा जाता है, शक्र नहीं, तथा शक्तिशाली को शक्र कह सकते हैं, इन्द्र नहीं । एवम्भूत नय के अभिप्राय से कोई भी शब्द अपनी प्रवृत्तिनिमित्तसहित अर्थ के हीं वाचक हो सकते हैं अन्यथा नहीं। जैसे- पानी का लाना आदि घटना (क्रिया) रहने पर हीं घट घट है । उक्त क्रिया के अभाव में घर में निष्क्रिय पड़ा हुआ घट घट नहीं । उस अवस्था में घट का व्यवहार औपचारिक हीं है, वास्तविक नहीं। इस प्रकार नय का संक्षेप में यह विवरण है। इन नयों की अपेक्षा से हीं लोग विवक्षावश पदार्थों का प्रतिपादन करते हैं । इसलिये पदार्थ सर्वनयात्मक हैं । पदार्थों को एक नयात्मक हीं मानना दुर्नय है । ) हे जिनेन्द्र ! आप यथार्थज्ञाता हैं, इसलिये नय तथा प्रमाण मार्ग का आश्रयण कर आप ने दुर्नयमार्ग का तिरस्कार किया है । ( एकान्तवाद में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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