Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 59
________________ १५६ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः तथा असत् की मुख्य भाव से, या असत् की गौण भाव से तथा सत् की मुख्य भावसे विवक्षा है । दोनों धर्मों को प्रधानभाव से प्रतिपादन करनेवाले शब्द नहीं होनेके कारण दोनों धर्मों के मुख्यभाव से विवक्षा करने पर पदार्थ अवक्तव्य है, किन्तु अवक्तव्यशब्द से उसका प्रतिपादन कथञ्चित् होजाता है । इसलिये 'कथञ्चित् अवक्तव्य है। इस प्रकार का चौथा वाक्य होता है । इस प्रकार सत् और अवक्तव्य इन दोनों धर्मों को एक साथ जोड़कर 'घट कथञ्चित् सत् कथञ्चित् अवक्तव्य ही है।' यह पांचमां वाक्य होता है। इसी प्रकार 'घट कथञ्चित् असत् कथञ्चित् अवक्तव्य ही है', 'घट कथञ्चित् सत् , कथञ्चित् असत्, कथञ्चित् अवक्तव्य ही है', इस प्रकार सात प्रकार के वाक्यप्रयोगों से किसी भी वस्तु का यथार्थरूप से प्रतिपादन होता है। इस प्रकार नित्यानित्यत्वादिधर्म का प्रतिपादन करने के लिये भी सप्तभङ्गात्मक वाक्यप्रयोग होता है। किसी भी पदार्थ में किसी भी धर्म का यथास्थितरूप में सप्तभङ्गवाक्य के विना प्रतिपादन नहीं होसकता । नयवाक्य से सामान्यतः किसी एकधर्मात्मक पदार्थ का प्रतिपादन होता है । अनन्तधर्मात्मक पदार्थ का प्रतिपादन सकलादेश से उक्तसप्तभङ्गात्मक वाक्य के द्वारा ही होता है। इस सप्तभङ्गात्मक वाक्य को ही प्रमाणवाक्य कहते हैं। ॥ २३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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