Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 60
________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दि भाषानुवादः Jain Education International ( जो पदार्थ सत् है, वह असत् नहीं हो सकता, क्यों की सत् असत् दोनों विरुद्ध धर्म हैं, इस लिये एक पदार्थ में सत्व असत्व दोनों नहीं रह सकते । ऐसे नित्यत्व अनित्यत्व, सामान्य विशेष, वाच्यत्व अवाच्यत्व, भी एकपदार्थ में नहीं रह सकते । एसी स्थिति में पदार्थ अनन्तधर्मात्मक नहीं हो सकते, इस प्रकार का तर्क संगत नहीं । क्योंकि - ) अपेक्षा भेद से पदर्थों में सत्व असत्व, वाच्यत्व अवाच्यत्व आदि धर्म विरुद्ध नहीं हैं। जैसे एक हीं व्यक्ति में पिता की अपेक्षा से पुत्रत्व, तथा पुत्र की अपेक्षा से पितृत्व, दोनों धर्म रहतें हैं । एक की अपेक्षा से हीं पितृत्व तथा पुत्रत्व विरुद्ध धर्म हैं । उस प्रकार हीं एक की अपेक्षा से हीं सत्त्व असत्व आदि धर्म विरुद्ध हैं । घटादि पदार्थ स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से सत् हैं, तो वे स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से हीं असत् नहीं हो सकते । जैसे कोई व्यक्ति पुत्र की अपेक्षा से हीं पिता और पुत्र दोनों नहीं हो सकती । किन्तु अपेक्षाभेद से जैसे एक हीं व्यक्ति पिता पुत्र दोनों है । वैसे हीं घटादि पदार्थ स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से सत्, द्रव्य की अपेक्षा से नित्य, अनेक धर्मों को प्रधान रूप से एकसाथहीं विवक्षा करने से अवक्तव्य हैं । तथा परद्रव्यादि की अपेक्षा से असत् पर्याय की अपेक्षा से अनित्य तथा गुणप्रधान भाव से क्रमशः अनेकधर्मों की विवक्षा करने से वक्तव्य हैं । हे जिनेन्द्र ! इस प्रकार सदसदादिधर्मों में रहने बाले अविरोध को जाने विना हीं जड़मति परतीर्थिक लोग सदसदादि धर्मों के विरोध से डरकर ' पदार्थ सत् हीं है, , इस प्रकार एका १५७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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