________________
१६०
अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिकास्तुतिः
अपने परस्पर के खण्डन में ही उनकी शक्ति समाप्त है। इसलि अगत्या मध्यस्थ अनेकान्तवाद का आश्रय ही उन लोगों को भी आर श्यक है ।) हे जिनेन्द्र ! उक्तकारण से आप का शासन अपराजे है। इसलिये सर्वोत्कृष्ट है। ॥२६॥
हे जिनेन्द्र ! नित्य एकान्त वाद हों अथवा अनित्य एकान्त वाद हों, किसी भी एकान्तवाद में-सुख दुःख का भोग, पुण्यपा बन्ध मोक्ष,- यह सब नहीं हो सकते। (यदि पदार्थ को एकान नित्य माना जाय, तो आत्मा एक स्वभाव की ही होगी। जो सद एक स्वभाव है, उसको ही नित्य कहते हैं। सुख दुःख दोन विरुद्ध धर्म हैं । इसलिये एकस्वभाव से इनका भोग नहीं हो सकता । पदार्थ को एकान्त अनित्य मानने से भी यह दोष होत है। क्योंकि सुख दुःख दोनों का भोग विरोधी होने के कारण एवं साथ नहीं हो सकता । क्रम से भी नहीं हो सकता । क्योंवि अनित्य पक्ष में पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायंगे, तो सुख दुःख का भोग किसको होगा ? । तथा नित्य पदार्थ अक्रिय होगा, सक्रिय मानने से क्रियाभेद से स्वभावभेद हो जायगा, तो पदार्थ में नित्यत्व ही नहीं रहेगा । क्रिया के विना, उससे होने बाले पुण्यपार कैसे होंगे? । अनित्यपक्ष में भी पुण्यपाप की सिद्धि नहीं. हे सकती। क्योंकि क्रिया करने बाला तो उत्पत्तिकाल में ही नष्ट है जायगा, तो क्रिया कौन करेगा ?, तथा उससे होने वाले पुण्यपा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org