Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 48
________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दिमाषानुवादः पदार्थ को सामान्यविशेषात्मक होने में कोई बाधा नहीं है ।) इस प्रकार वाचक शब्द भी सामान्यविशेषात्मक हैं । हे जिनेन्द्र ! इस प्रकार वाचक शब्दों तथा वाच्य पदार्थों के उक्तयुक्ति बल से सामान्य विशेष रूप सिद्ध होने पर भी, वाचक तथा वाच्यों में किसी को सामान्य हीं तथा किसी को विशेष रूप हीं प्रतिपादन करना परतीर्थिकों की युक्ति के अन्वेषण की शिथिलता को हीं सूचित करता है । ( परतीर्थिक लोग युक्ति की कल्पना में निपुण नहीं हैं, इसलिये पदार्थ के सूक्ष्मतत्व को प्राप्त करने में सफल नहीं होते । ) ॥ १४ ॥ Jain Education International १४५ हे जिनेन्द्र ! कोई जड़ परतीर्थिक ( साख्यानुयायी ) कि - तनें हीं विरुद्ध विषयों का प्रतिपादन करते हैं । जैसे -चैतन्य पुरुष का गुण है, किन्तु वह पदार्थ का परिच्छेदक नहीं । ( क्यों कि उसको पदार्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । ) बुद्धि प्रकृति का विकार है, इसलिये जड़ है । ( क्यों कि प्रकृति जड़ है तो उसका परिणाम चेतन कैसे होगा ! किन्तु बुद्धि उभयमुख दर्पण के समान निर्मल है, उसमें एक तरफ से चैतन्य का दूसरी तरफ से पदार्थ का प्रतिबिम्ब पडता है, इसलिये बुद्धि, चेतन जैसा प्रतिभासित होती हैं, अर्थात् पदार्थ का बुद्धि द्वारा भान होता है । प्रकृति से बुद्धि, उस से अहङ्कार, उससे पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, मन, तथा शब्द आदि पञ्चतन्मात्रा की उत्पत्ति होती है । आकाश आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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