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अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः
अनुमानप्रमाण को नहीं माननेवाले, दूसरों के अभिप्राय को नहीं जान सकते । तथा दूसरों के अभिप्राय को जाने विना प्रश्नोत्तररूप वाक्य का प्रयोग नहीं किया जा सकता । इसलिये नास्तिकों को बोलने की भी योग्यता नहीं है ।) चेष्टा आदि से दूसरे के अभिप्राय को जाना जा सकता है। किन्तु चेष्टा कहां ?, और प्रत्यक्षमात्र कहां ? । (चेष्टा से पराभिप्राय को जानना अनुमान ही है, प्रत्यक्ष नहीं । इसलिये चेष्टा से पराभिप्राय के ज्ञान का स्वीकार करने पर, प्रत्यक्षमात्र ही प्रमाण है, इस सिद्धान्त का खण्डन हो जाता है ।) नास्तिकों का प्रमाद अत्यन्त खेद का विषय है । (अनुमान आदि प्रमाणों के चेष्टा आदि से पराभिप्राय आदि के ज्ञान से-सिद्ध होने पर भी प्रत्यक्ष से अतिरिक्त प्रमाण को न मानने में प्रमाद के सिवाय दूसरा कारण नहीं। और इस प्रकार का प्रमाद तत्त्वज्ञान में दृढविघ्न होने के कारण अत्यन्त खेद का विषय है। उसका त्याग करना ही चाहिये । तब आप के सिद्धान्त की यथार्थ. ता को वे भी स्वीकार करेंगे हीं) ॥२०॥
हे जिनेन्द्र ! प्रतिक्षण में प्रत्येक वस्तु के उत्पाद विनाश तथा स्थिरता का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए भी जो आप के सिद्धान्त की उपेक्षा करता है, वह या तो पागल है, या उसको कोई पिशाच लग गया है। (अन्यथा स्वस्थचित्त बाला प्रत्यक्ष का अपलाप कैसे कर सकता है ? । घट उत्पन्न होता है, तथा नष्ट होता है। किन्तु जिस
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