________________
कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषानुवादः
के डर से अन्यतीर्थिकों (गौतम, कणाद, जैमिनि) ने ज्ञान को परप्रकाश्य मान लिया है = स्वप्रकाश नहीं माना है । (वे लोग पदार्थ के तत्व को नहीं जानते हैं, इसलिये डरते हैं । ज्ञानी को डर नहीं होता । तथा यहां डरने की कोई बात भी नहीं है। ज्ञान स्व को प्रकाशित नहीं करता, किन्तु वह दीप के जैसे प्रकाशस्वभाव है। इसलिये तलवार का दृष्टान्त ज्ञान के विषय में संगत नहीं। तथा ज्ञान स्वप्रकाश है यह बात युक्तिसिद्ध होने पर भी उसको स्वप्रकाश नहीं मानने में भय के सिवाय दूसरा क्या कारण हो सकता है ?। इस प्रकार का उपहास भी यहां ध्वनित होता है।) ॥ १२ ॥
(जो कोई ( वेदान्ती लोग) ऐसा मानते हैं कि- ' ब्रह्म ही एक सत् है, जगत् मिथ्या है। रस्सी में सर्प के जैसे ब्रह्म में माया-अविद्या से जगत का प्रतिभास होता है।' यह बात युक्ति विरुद्ध है। क्यों कि-) हे जिनेन्द्र ! माया यदि.- सत् है, तो माया और ब्रह्म दो तत्त्व हो जाते हैं। (इसलिये 'एक ब्रह्म हीं सत् है' ऐसा कथन असिद्ध हो जाता है।) यदि माया को असत् माना जाय, तो जगत का प्रतिभास नहीं हो सकता । (जो स्वयं असत् हैं वह दूसरे का प्रतिभासक नहीं हो सकता । कोई भी कार्य सत् से ही होता है, असत् दीप घट आदि पदार्थ का प्रकाशन नहीं करता ।) यदि माया को जगत् का प्रतिभासक माना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org