Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 33
________________ १३० अयीगव्त्रच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः पर नहीं किन्तु वीतरागता आदि गुणों पर हीं मेरा अनु॥ ३१ ॥ राग है | ) हे जिनवर ! आपके आप्तता का समर्थन रूप इस स्तुति को कोई श्रद्धा का हीं उद्गार समझें, या स्वभाव से हीं परिनन्दक जडबुद्धि लोग परनिन्द्रारूप समझें । ( क्यों कि जिसकी जैसी प्रकृति तथा बुद्धि होती है, वह उसके अनुसार हीं किसी बात को समझता है । ) किन्तु जो मध्यस्थ एवं विवेकी हैं, और परीक्षा करके किसी भी वस्तु के सार को ग्रहण करने में समर्थ हैं, उनके लिय तो स्तुति के नाम से कही गयी धर्ममय ये बातें तत्व का प्रदर्शक हीं हैं । ( इस स्तुति के पाठ से धर्म तथा तत्त्वज्ञान दोनों हीं होते हैं, यहकेवल श्रद्धा या परनिन्दा के उद्देश्य से कही गई बातें नहीं है, किन्तु इसका उद्देश्य धर्म और तत्त्वज्ञान हीं है । इस विषय में दूसरे प्रकार का अभिप्राय प्रकट करना खेद की हीं बात होगी । ) ॥ ३२ ॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिताऽयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतेः श्रीतपोगच्छाधिपतिशासनसम्राट्कदम्बगिरिप्रभृत्यनेकतीर्थोद्धारकबालब्रह्मचार्याचार्यवर्यश्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरपट्टालङ्कारसमयज्ञशान्तमूर्त्त्याचार्यश्रीविजयविज्ञानसूरीश्वरपट्टधरसिद्धान्तमहोधधिप्राकृतविद्विशारदाऽऽचार्यवर्यश्री कस्तूरसूरीश्वरशिष्यश्री कीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितः कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभषानुवादः समाप्तः || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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