Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 26
________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषानुवादः १२३ कहा जा सकता है, कि ये लोग आपके शासन में कहे गये पदार्थों की उपेक्षा करते हैं, या अश्रद्धा करते हैं। (क्यों कि आप के शासन में श्रद्धा तथा उसका अनुसरण से ही मुक्ति मिल सकती है।) ॥ १३ ॥ हे जिनेन्द्र ! कोई भी व्यक्ति हजारों वर्षों तक तप करे, अथवा युगयुगान्तरों तक योग की उपासना करे, फिर भी आपके बताये मार्ग को स्वीकार किये विना भव्य जीव भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते। (क्यों कि जिनेन्द्र के बताये मार्ग के सिवाय दूसरा कोई भी मुक्ति का मार्ग नहीं है ।) ॥ १४ ॥ हे जिनेन्द्र ! दूसरे आगमों के विषय में, 'यह अप्रामकाणि व्यक्ति से रचित है, अल्पज्ञ व्यक्ति से रचित है, या राग द्वेषादि से रचित है । इस प्रकार की सम्भावनाओं के कारण बहुत से आक्षेपों का अवसर है। ऐसी स्थिति में वे आगम, परम आप्त ऐसे आप से बताये गये सन्मार्ग के उपदेश रूप आगम के विषय में आक्षेप की धृष्टता कैसे कर सकते हैं ? । (जो स्वयं दुष्ट है, वह दूसरे निर्दष्ट वस्तु को दूषित करने में समर्थ नहीं हो सकता ।) ॥१५॥ हे जिनेन्द्र ! दूसरे तीर्थकरों ने सरल भाव से जो कुछ कहा, उसको उनके शिष्यों ने दूसरा ही रूप दे दिया। (जैसेकणाद ने छौ, तथा गौतम ने सोलह पदार्थ गिनाये। उनके शिष्य नव्यनैयायिकों ने सात पदार्थ को ही माना । शङ्कराचार्य ने शुद्धाद्वैत का प्रतिपादन किया, किन्तु वाचस्पति मिश्र आदि ने विशिष्टा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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