Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 30
________________ कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषाऽपुवादः १२७ रहित, और वितण्डावादी ऐसे परतींर्थिकों से जिस प्रकार तिरस्कृत हो रहा हूँ। हे देव ! उसके लिये आप जैसे वीतराग का किङ्कर मैं क्या कर सकता हूँ ? । जैसे वीतराग अपने अपकारी के प्रति भी उपेक्षा रखते हैं । वैसे उनके किङ्कर भी अपमान करने बाले के प्रति उपेक्षा रखें, यही योग्य है, 'यथा राजा तथा प्रजाः '1) ॥ २३ ॥ . हे जिनेन्द्र ! जिसको जन्मजात वैरी सिंह मृग आदि भी वैरभाव को त्याग कर आश्रयण करते हैं। किन्तु अभव्य होने के कारण जहां परतीर्थिकलोग नहीं पहुच पाते, ऐसे आपके समवरण या उपदेशस्थान का मैं आश्रय लेता हूँ। (क्यों कि आप का उपदेशस्थान भी रागद्वेष का नाश करने वाला है । दूसरे देवों का उपदेशस्थान तो रागद्वेष का बढाने बाला ही हैं । व्यक्ति के महत्त्व से ही स्थान का महत्त्व होता है ।) ॥२४॥ हे जिनेन्द्र ! मद मान काम क्रोध लोभ और हर्ष के अधीन रहने बाले दूसरे देवों को अकारण ही त्रिभुवन साम्राज्य या ऐश्वर्य का रोग लग गया है। (जो मद आदि से युक्त है, वह स्वयं पराधीन है, इसलिये उसका साम्राज्य नहीं हो सकता । बल्कि ऐसे व्यक्ति का सम्राज्य मद आदि का बढानेबाला होने के कारण रोग जैसा ही है । वास्तविक साम्राज्य तो आप जैसे वीतराग का ही कहा जा सकता है ।) ॥ २५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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