Book Title: Dvantrinshikadwayi Kirtikala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Bhailal Ambalal Shah

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Page 29
________________ १२६ अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः देव नहीं सिख पाये हैं, तो दूसरे गुणों की बात ही क्या ? । (आपका स्थूल गुण भी दूसरे देवों मे नहीं है । तो श्रमसाध्य मुक्ति आदि के उपदेश करने का गुण उन देवों में कैसे हो सकता है ? । इसलिये आप ही सर्वश्रेष्ठ देव हैं।) ॥२०॥ . हे जिनेन्द्र ! जिस में प्रतिपादित सम्यक्त्व के बल से आप जैसे तीर्थङ्करों के पारमार्थिक स्वरूप को जान पाता हूँ। (क्यों कि उसके लिये आगम के सिवाय दूसरा कोई साधन नहीं है ।) तथा जो कुवासना रूपी पाश का नाश करने बाला है । ऐसे आपके शासन को मेरा नमस्कार हो। (दूसरे शासन न तो सम्यक्त्व का प्रतिपादन करने बाले हैं, और न कुवासना का नाश करने बाले ही है । इसलिये वैसे शासन नमस्कार के योग्य नहीं हैं।) ॥ २१ ॥ हे जिनेन्द्र ! मध्यस्थ रूप से परीक्षा करता हुआ, आप तथा परदेव-दोनों की दोनों बातें असाधारण हैं, ऐसा निश्चयपूर्वक समझाता हूँ । जैसे-आपका वस्तुओं का यथार्थ रूप से उपदेश, और दूसरे देवों का असत्पदार्थ = पदार्थ के अयथार्थ रूप के प्रतिपादन करने का हठाग्रह । (ऐसे हठाग्रही दूसरे नहीं, तथा आपके जैसे यथार्थ उपदेश देने बाले भी दूसरे नहीं हैं ।) ॥२२॥ हे जिनेन्द्र ! अनादि ऐसी कुवासना या अर्वाचीन विद्या के रहस्य के जानने बाले, किसी भी नियम के न मानने बाले=मर्यादा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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