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अयोगव्यच्छेदद्वात्रिंशिकास्तुतिः
अशक्य है, किन्तु) हे ! भगवन् ! आप की स्तुति में योगी भी असमर्थ नहीं हैं क्या ?। (यदि ऐसा कहा जाय की असमर्थ होने पर भी योगी लोग भगवान् के गुणों में अनुराग होने के कारण स्तुति करने में प्रवृत्त होते हैं, क्यों कि प्रेम से असाध्य कार्य में भी लोग प्रवृत्त होते हैं, तो) गुणों के विषय में मेरा भी अनुराग दृढ तथा स्थिर है । इस विचार से आप की स्तुति करता हुआ अल्पज्ञ भी यह जन कोई अपराध नहीं करता है। यदि गुण में अनुराग से एक असमर्थ की प्रवृत्ति अपराध नहीं है, तो दूसरे की भी वह प्रवृत्ति अपराध नहीं है। दोष सब के लिये दोष होता है, एक के लिये ही नहीं। ॥२॥
श्री सिद्धसेन दिवाकर कृत महान् अर्थबाली आप की स्तुति कहां ?, और अल्पज्ञ ऐसे मेरी टूटी फूटी बाणी कहां ? । (दोनों मे बहुत अधिक अन्तर है ।) तथापि गजेन्द्र का अनुसरण करता हुआ ठेस खाता लंगराता उसका वच्चा उपालम्भ का पात्र नहीं । (मैं भी महान् का अनुसरण करते हुए ही स्तुति में प्रवृत्त हुआ हूँ । इसलिये उस में त्रुटि होने परभी, उसको आलोचना का विषय नहीं मानना चाहिये ।) ॥३॥
(जिनेन्द्र के सिवाय अन्य तीर्थङ्करों की स्तुति इष्ट नहीं है । क्यों कि) हे जिनेन्द्र ! मुक्ति तथा तत्त्वज्ञान आदि के विरोधी होने के कारण जिन अनर्थकारी हिंसा स्त्रीपरिग्रह आदि, अथवा राग
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