Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 11
________________ भोपाल दि. २४.०५.२००५ मंगलमय मंगल करण वीतराग विज्ञान। नमों ताहि जातें भये, अरहंतादि महान। आगमनिष्ठ, आगमवेत्ता, श्रीयुत् पं. रतनलालजी बैनाड़ा को जिज्ञासु ब्र. हेमचंद्र जैन का सादर यथायोग्य अभिवादन सह जयजिनेंद्र, दर्शन विशुद्धि। अत्र स्वाध्यायामृतपानबलेन कुशलं तत्राप्यस्तु। मैं जिनभाषित का नियमित पाठक हूँ। इस मई २००५ माह के जिज्ञासा-समाधान में आप ने अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को आत्मानुभूति से रहित आत्मविश्वासी मात्र मान्य किया है। वह भी प.पू. ज्ञान सागरजी आचार्य के शब्दों में, न कि पूर्ववर्ती आचार्यों के शब्दों में। कारण क्या है? मुनिवर प.पू.वीरसागरजी महाराज (अकलूज-सोलापुर) द्वारा लिखित चारों अनुयोगों के आधार पर संकलित ‘अविरत सम्यक्त्वी के शुद्धात्मानुभूति की संप्रमाण सिद्धि' पुस्तिका आपने पढ़ी ही होगी। तथा उनके द्वारा लिखित 'अध्यात्म न्याय दीपिका' भी पढ़ी होगी। तथा 'समयसार तात्पर्यवृत्ति टीका' का उन्हीं के द्वारा कृत हिंदी अनुवाद भी पढ़ा ही होगा। तत्संबंध में आपका क्या कहना है? अब मुझ जिज्ञासु की निम्नलिखित जिज्ञासाओं का आगम प्रमाण पूर्वक जो आपकी शैली है, समाधान करने की कृपा करें। भवदीय- ब्र. हेमचंद्र जैन हेम', भोपाल धर्म्यध्यान-आगम के आलोक में (१)महापुराण- पर्व २१, श्लोक ७५ - देहावस्था पुनर्यव न स्याद्ध्यानोपरोधिनी। तदवस्था मुनिायेत् स्थित्वासित्वाधिशय्य वा ॥ ७५।। - किसी भी अवस्था में (बैठे हुए, लेटे हुए, अथवा अर्धपद्मासन, पद्मासन, खड्गासन) आदि में ध्यान हो सकता है। जब कभी उपयोग को अंतरंग स्वभाव को जानने में लगायेंगे | तब आत्मानुभव हो सकता है। (२)प्रवचनसार गाथा १८१ सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये।।१८१॥ अर्थ-पर के प्रति शुभपरिणाम पुण्य है और पर के प्रति अशुभ परिणाम पाप है। पर जोपरिणामाम दूसरों के प्रति जाता नहीं ऐसा (अनन्य) परिणाम उसी समय दुःखक्षय का (संवरपूर्वक निर्जरा | का शुद्धात्मानुभूति का -परमानंद का- निराकुलता का) कारण है ऐसा कहते हैं।

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