Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 37
________________ ३७ है। वे ही क्रमशः निश्चय सम्यक्त्वी श्रावक व मुनि होते हैं। तभी व्यवहार सम्यक्त्व, अणुव्रत व महाव्रत को पूर्वचरापेक्षा साधन संज्ञा होती है। तब वे सहचररूप, कारण रूप-साधन रूप विद्यमान रहते हैं। जिज्ञासा ३ - क्या सम्यग्दर्शन की पर्याय निश्चय-व्यवहार दो रूप होती है? . महोदय, आपने यह जो निष्कर्ष निकाला है कि निश्चय सम्यक्त्व तो कभी-कभी होता है जब कि व्यवहार सम्यक्त्व प्रचुरता से रहता है, यह नितान्त भ्रमपूर्ण है। इसका खुलासा मैं जिज्ञासा १ व २ में कर ही आया हूँ। परमार्थतः निश्चय-व्यवहार दो रूप से निरूपण किया जाता है। निश्चय तो अनिर्वचनीय ही होता है और उसकी बाह्य व्यवहार लक्षणों से पहचान करायी जाती है। वस्तुतः सराग/व्यवहार सम्यक्त्व तो निश्चय/वीतराग सम्यक्त्व का ज्ञापक निमित्त है जो साधक अवस्था में पाया जाता है। अरहंतावस्था में तो सराग सम्यक्त्व व सराग चारित्र (महाव्रतादिरूप व्यवहार चारित्र)का अभाव ही हो जाता है। जब कि क्षायिक सम्यक्त्व व क्षायिक चारित्र आदि अनंतकाल (आत्मा में)प्रगट बना रहता है। अतः आपको यथार्थ का नाम निश्चय एवं उपचार का नाम व्यवहार ऐसा ही निर्णय करना चाहिए। जो उपचार/व्यवहार को परमार्थ/निश्चय मानते हैं वे तो मिथ्यादृष्टि ही हैं तथा वे भीजो साधक अवस्था में उपचार/व्यवहार साधन का सर्वथा निषेध करते हैं मिथ्यादृष्टि ही हैं और जो शुभोपयोग करते-करते शुद्धोपयोग हो जाता है ऐसा मानते हैं, वे भी मिथ्यादृष्टिपने को प्राप्त हो जाते हैं। क्यों कि यदि ऐसा ही माना जाये तो शुभोपयोग से पहले होने वाले/रहने वाले अशुभोपयोग को शुभोपयोग का कारण मानना पड़ेगा-जो संभव नहीं है। इसका भी खुलासा भी आ.क.पं.टोडरमलजी ने मो.मा.प्र.पृ.२५६ पर किया है। - 'द्रव्यलिंगी के शुभोपयोग तो उत्कृष्ट होता है, शुद्धोपयोग होता ही नहीं, इसलिए परमार्थ से इनके कारणकार्यपना नहीं है। इतना है कि शुभोपयोग होने पर शुद्धोपयोग का यत्ल करें तो हो जाये, परंतु यदि शुभोपयोग को ही भला जानकर उसका साधन किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे हो? . . - . इसलिए मिथ्यादृष्टि का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग का कारण है ही नहीं, सम्यग्दृष्टि को शुभोपयोग होने पर निकट शुद्धोपयोग प्राप्त हो-ऐसी मुख्यता से कहीं शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का कारण भी कहते हैं। __ आपने जो-जो आगमप्रमाण दिये हैं वे मुझे पूर्णतः मान्य हैं। जो प्रचुरता से प्रशस्तराग सहित वर्तन करने वाले चतुर्थ-पंचम-षष्ठम गुणस्थानवी जीव है,उनके विपरीताभिनिवेश रहित निश्चय सम्यक्त्व को ही सराग सम्यक्त्व संज्ञा है और जो महामुनिराज प्रचुरता से शुद्धोपयोग में वर्तन कर रहे हैं उनके उस निश्चय सम्यक्त्व को ही वीतराग सम्यक्त्व कहा है। सरागतावीतरागता यह चारित्रगुण का परिणमन है, न कि श्रद्धा-सम्यक्त्व गुण का ! सम्यक्त्व की घातक तो दर्णनमोह में अनंतानुबंधी प्रकृति है, उसका अभाव होने पर (उदयस्त रहने पर)जो निर्मल प्रतीति पायी जाती है वही निश्चय सम्यक्त्व है, तथा जो सराग :

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