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अर्थ-(आत्म)ध्यान करने से मुनिराज नियम से निश्चय और व्यवहार रूप क्षमार्गको प्राप्त करते हैं। अतः तुम चित्त को एकाग्र करके ध्यान का सम्यक् प्रकार से अभ्यास करो। हमको भी इसी प्रकार से ध्यान करने की प्रेरणा गाथा -४८ में दी है।
४. राजा श्रेणिक के क्षायिक सम्यक्त्व/वीतराग सम्यक्त्व है वह निश्चय सम्यक्त्व ही है। इसके आगम प्रमाण मैंने अपने १. ११. ०५ के पत्र में दिये हैं। सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, अमितगति श्रावकाचार, पंचास्तिकाय, श्लोकवार्तिक, मो.मा.प्रकाशक के प्रमाणों से सराग-वीतराग सम्यग्दर्शन बाब स्पष्टता हो जाती है तथा पंचास्तिकाय गाथा १६० में तो गृहस्थ व मुनिराज के सम्यग्दर्शन को स्पष्टतया समान होते हैं - कहा है।
. ५. अनंतानुबंधी के अभाव में स्वरूपाचरण चारित्र होता है-ऐसा सीधा आगम वाक्य देखने में नहीं आया। सम्यक्त्वाचरण चारित्र होता है, ऐसा तो आया ही है तथा शुद्धोपयोग के बिना दर्शनमोह का क्षय नहीं होता - ऐसा प्रवचनसार गाथा- ८० (जो जाणदि अरहंत)की ता.वृ.टीका में स्पष्ट जयसेनाचार्य देव ने लिखा है। अर्थात् क्षायिक सम्यग्दर्शन शुद्धोपयोग रूप निर्विकार स्वसंवेदन बिना नहीं होता-यह स्पष्ट है और औपशमिक सम्यक्त्व क्षायिकवत् निर्मल होता ही है। अतः इससे निश्चय होता है कि स्वात्मानुभूति/शुद्धोपयोग बिना(भले बिजली की चमकारवत् अत्यल्प हो)औपशमिक सम्यक्त्वोपलब्धि संभव नहीं है।
६. स्वरूपाचरण चारित्र की परिभाषा-जैसा कि पूर्व विद्वान परंपरा ने स्वीकार किया है वही देखने में आती है-जो कि अनंतानुबंधी कषाय के अभाव में प्रगट होता है। फिर भी जब अनंतानुबंधी चारित्रमोह की प्रकृति है अतः उसके जाने पर जो भी शुद्धि अंश प्रगट होता है, उसे कुछ न कुछ तो नाम देना ही पड़ेगा। तभी तो धवला भाग १-पृ.१६५ दसवें सूत्र (सासण सम्माइट्ठी....) की टीका में आचार्य वीरसेन स्वामीने यह लिखा है कि -
....इति चेत्,न सम्यग्दर्शनचारित्र प्रतिबन्ध्यानन्तानुबंधी उदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्यं तत्र सत्वाद् भवति मिथ्यादृष्टिरपितु मिथ्यात्वकर्मोदयजनित विपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टि व्यपदेशः किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते। किमिति मिथ्यादृष्टि रिति नव्यपदिश्यते चेन्न, अनंतानुबंधिनां द्विस्वभावत्व प्रतिपादन फलत्वात् । न च दर्शनमोहनीय स्योदयादुपशमात्क्षयात्क्षयोपशमाद्वासासादन परिणामः.....प्राणिनामुपजायते तेन मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरितिचोच्येत। यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽ भूदनन्तानुबंधिनो,न तदर्शनमोहनीयं,तस्य चारित्रावरणत्वात्। तस्योभयप्रतिबंधकत्वा दुभय- व्यपदेशो न्याय्य इतिचेन्न, इष्टत्वात्। अर्थ-शंका-यदि ऐसा है तो इसे (सासादन सम्यग्दृष्टि को) मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है.? समाधान-नहीं, क्यों कि सम्यग्दर्शन और (स्वरूपाचरण)चारित्र का प्रतिबंध करन वाले अनंतानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है। इसलिए द्वितीय गुणस्थानवी जीव मिथ्यादृष्टि है किंतु मिथ्यात्वकर्म के उदय में उत्पन्न