Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 66
________________ अमृतचंद्राचार्य,श्रीमद्जयसेनाचार्य की आत्मख्याति/तात्पर्यवृत्ति टीकाओं को मान्य तो करते हुए भी अमान्य करते हैं?यह कहकर कि यह सम्यग्दर्शन की परिभाषा मुनियों के लिए हैं और गृहस्थों के लिए अलग है? । क्षमस्व ! आप मुझे क्षमा करें, कि मुझे इस पत्र में आपको यह लिखना पड़ रहा है। फिर भी मैं आपकी सहृदयता एवं जिनवाणी के प्रति प्रेम-समर्पण भाव की प्रशंसा ही करता हूँ कि आपसे प्रेरणा पाकर मैंने आगम-अध्यात्म ग्रंथों का और भी अधिक गहराई से , निष्पक्ष भाव से स्वाध्याय प्रारंभ कर दिया है। आप भी ऐसा ही करेंगे और किंचित मुझ पर कृपादृष्टि बनाये रखेंगे और मेरे पूर्व में दिये गये समाधानों और जिज्ञासाओं के संदर्भ में अपना सप्रमाण निर्णय | समाधान भेजने की कृपा करेंगे तो आभारी हूँगा। बहुत कहने से क्या लाभ? . किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले। . सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह समामाहप्पं ।।८८ ।। मोक्षपाहुड . अर्थ-बहुत कहने से क्या साध्य है? जो नरप्रधान अतीत काल में सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो। भवदीय - ब्र. हेमचंद्र जैन 'हेम' धर्म्यध्यान-आगम के आलोक में दर्शनं ज्ञानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते॥३१।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार न सम्यक्त्व समं किञ्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।। ३४।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृहीश्रेयान, निर्मोहो मोलिनो मुनेः॥ ३३ ।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं बिना च विपरीतात्। निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः॥ ४२॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार . क्षमायाचना इस पुस्तक की छपाई में अगर कहीं अशुद्ध गाथा या श्लोक आदि लिखे गये हों तो वह हमारी भूल है । कृपया पाठक गण मूल प्रतियों में देखकर सुधार कर लेवें और हमें भी अवगत करा शोधन में रही इन भूलों के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। - संपादिका

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