Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 62
________________ ६२ के द्वारा सम्यक्त्व के द्वारा सम्यक्त्व और संयम घाता जाता है। (इ)श्री धवला पु.१, पृष्ठ ३६१ पर इसप्रकार कहा है- 'मिथ्यादृष्टि जीवों के भलेही दोनों (मति व श्रुत) अज्ञान होवें, क्यों कि वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना चाहिए? उत्तर-नही, क्यों कि विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं। और वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। (ई) पंचसंग्रह प्राकृत- १/११५ में इसप्रकार कहा है, 'पढमो दंसणघाई विदिओ तह घाड़ देसविर त्ति तइओ संजमघाड़ चउत्थो जहरवाय घाइया। प्रथम अनंतानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है , द्वितीय अप्रत्याख्याना- वरण कषाय देशविरति का घातक है।, तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय सकल संयम की घातक है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र की घातक है। (उ)अनंतानुबंधी यद्यपि चारित्रमोहनीय ही है तथापि वह स्वक्षेत्र तथा परक्षेत्र में घात करने की शक्ति से युक्त है। श्री धवल पु. ६, पृष्ठ ४२-४३ में कहा है कि 'अणताणुबंधिणो----- सम्मत्तचाणित्ताणं विरोहिणी । दुविहसत्तिसंजुदत्तादो। --------- एदेसिं------सिद्ध दसणमोहणीयत्तं चरित्तमोहणीयत्तं च।' अर्थ-गुरुउपदेश तथा युक्ति से जाना जाता है कि अनंतानुबंधी कषायों की शक्ति से दो प्रकार की है। इसलिए सम्यक्त्व व चारित्र इन दोनों को घातने वाली दो प्रकार की शक्ति से संयुक्त अनंतानुबंधी है। ------ इसप्रकार सिद्ध होता है कि अनंतानुबंधी दर्शनमोहनीय भी है,चारित्र मोहनीय भी है। अर्थात् सम्यक्त्व तथा चारित्र को घातने की शक्ति से संयुक्त है। इसप्रकार अनंतानुबंधी की दोनों शक्तियों को स्वीकार करना चाहिए। . (ऊ) श्री धवला पृ.१, पृष्ठ १६५ पर इस प्रकार कहा है - _ 'अनंतानुबंधी की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है तथा जिस अनंतानुबंधी के उदय से दूसरे गुणस्थान में विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनंतानुबंधी दर्शनमोहनीय का भेद नहीं होकर चारित्र का आवरण करने वाला होने से चारित्रमोहनीय का भेद है।' प्रश्न-अनंतानुबंधी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबंधक होने से उसे उभयरूप संज्ञा देना न्याय संगत है? उत्तर- यह आरोप ठीक नहीं है। क्यों कि यह तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् अनंतानुबंधी को सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबंधक माना ही है। (ए)श्री धवल पु. ६, पृष्ठ ४२ पर इसप्रकार कहा हैप्रश्न-अनंतानुबंधी कषायों की शक्ति दो प्रकार की है। इस विषय में क्या युक्ति है? उत्तर-ये चतुष्क दर्शनमोहनीय स्वरूप नहीं गनेजा सकते क्यों कि सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के द्वारा ही आवरण किये जाने वाले दर्शनमोहनीय के फल का अभाव है और न इन्हें चारित्र मोहनीय स्वरूप ही माना जा सकता है , क्यों कि अप्रत्याख्यानावरणादि

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