Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 60
________________ ८. विपरीताभिनिवेश दो प्रकार का होता है-एक अश्रद्धान रूप और एक अस्थिरतारूप ! द्रव्यकर्मनोकर्म-भावकर्म रहित निजशुद्धात्मा की श्रद्धा नहीं होना,मिथ्यात्वोदयजनित विपरीता- भिनिवेश है और स्वरूप में स्थिरता (लीनता)नहीं होना चारित्रमोहोदयजनित विपरीताभिनिवेश है। अतत्त्वश्रद्धा (प्रयोजनभूत तत्त्वों की श्रद्धा नहीं होने)का कारण मिथ्यात्व (दर्शनमोह)है और अस्थिरता (राग-द्वेष रहित निर्विकल्पता का नहीं होना)का कारण कषाय (चारित्रमोह) है। ९. प.पू.आ.वीरसेन महाराज ने (धवल पु.१/१६३) यही बात सिद्ध की है कि दूसरे गुणस्थान- वर्ती जीव को सासादन सम्यग्दृष्टि क्यों कहा? मिथ्यादृष्टि क्यों नहीं कहा?क्यों कि विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व जन्य और अनंतानुबंधी जन्य दो प्रकार का होता है। सो दूसरे गुणस्थान में अनंतानुबंधी जन्य विपरीताभिनिवेश हुआ है ,जो कैन्सर रोग की तरह सम्यक्त्व का घातक है। यहाँ मिथ्यात्वोदय जन्य विपरीताभिनिवेश नहीं हुआ होने से दूसरे गुणस्थानवर्ती को आसादना सहित सम्यग्दृष्टि कहा है। मिथ्यादृष्टि नहीं कहा। यही बात आ.क.पं.टोडरमल जी ने सिद्ध की है। १०. अनंतानुबंधी यद्यपि चारित्रमोहनीय ही है, तथापि वह स्वक्षेत्र तथा परक्षेत्र का घात करने की शक्ति से संयुक्त है। अर्थात् चारित्र(स्वक्षेत्र)एवं सम्यक्त्व(परक्षेत्र)को घातने की शक्ति से संयुक्त है। अनंतानुबंधी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करने वाला होने से चारित्रमोहनीय का ही भेद है। इसलिए दूसरे गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादन सम्यग्दृष्टि कहा है तथा अनंतानुबंधी को सम्यक्त्व व चारित्र इन दोनों का प्रतिबंधक माना ही है। (देखो-धवल १/१६५ व ६/४२) ११. आ.क.पं.टोडरमल जी का ज्ञान तर्क/विचारणा सहित अगाध गंभीरता लिए हुए था, इसीसे उनके सामने धवल ग्रंथ उपलब्ध न होने पर भी यह निष्कर्ष निकालकर मो.मा.प्र.९वें अध्याय में यह लिखा है- . 'अनंतानुबंधी के उदय से क्रोधादि परिणाम होते हैं, कुछ अतत्त्वश्रद्धान नहीं होता। इसलिए अनंतानुबंधी चारित्र ही का घात करती है ,सम्यक्त्व का घात नहीं करती। सो परमार्थ से है तो ऐसा ही, परंतु अनंतानुबंधी के उदय से जैसे क्रोधादिक होते हैं, वैसे क्रोधादिक सम्यक्त्व होने पर नहीं होते। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक पाया जाता है। .......इसलिए उपचार से अनंतानुबंधी के भी सम्यक्त्व का घातकपना कहा जाये तो दोष नहीं है । अर्थात् पं. टोडरमल जी ने अनंतानुबंधी की द्विस्वभावता मान्य की है। भवदीय- हेमचंद जैन -(विद्वत्जनों से विशेष प्रार्थना है कि उक्त चर्चा के विषय में अपने अभिप्राय निम्न पते पर अवश्य अवगत करावें।) ब्र. हेमचंद जैन ‘हेम' एम. आय. जी.,१०, सेक्टर ए, सोनागिरि , भेल -भोपाल (म.प्र.) 462002, (फोन-0755 - 2681 049)

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