Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 45
________________ ४५ महोदय ! आपने इतना तो ठीक ही लिखा कि सम्यग्दृष्टि तो द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा का ही श्रद्धान करता है। (परंतु जो यह लिखा कि पर उस आत्मा की अनुभूति वीतराग परिणति में ही होती ही है, जो कि वीतराग चारित्र के होने पर ही संभव है। अर्थात् मुनि को ही होती है, एक लंगोटी धारी ऐलक को भी नहीं?.मैं फिर जानना/पूछना चाहता हूँ, कि उस एक लंगोटी धारी तपस्वी सच्चे सम्यग्दृष्टि पंचम गुणस्थानवर्ती को रञ्चमात्र भी आत्मानुभूति (आनंदानुभूति)नहीं है/नहीं होती है, तो लंगोटी छोड़ते ही, मुनिदीक्षा लेते ही, वह आत्मानुभूति-अतींद्रिय आनंदानुभूति प्रगट हो जाती होगी? जरा विचार करो कि किस अपेक्षा से वीतराग चारित्रधारी मुनि को वह आत्मानुभूति किस स्तर की होती है जो आगम में लिखी गयी है । अहो ! मुनिराज के अतींद्रिय आनंद की तो क्या बात करना? वे तो तीन कषाय चौकड़ी के . अभाव से निरंतर प्रचुर स्वसंवेदन रूप निराकुलता का प्रत्यक्ष वेदन करते हैं। जिज्ञासा १३ - अविरत सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी है या नहीं? यदि है तो उसके चारित्र कौनसा प्रगट हुआ कहलायेगा? मिथ्या चारित्र भी उसके नहीं है। . .. आदरणीय बैनाड़ा जी ! इस जिज्ञासा के समाधान में आपने जो भी आगम प्रमाण दिये हैं, वे सर्व ही मुझे पूर्णरीत्या मान्य हैं। मेरा तो मात्र इतना ही कहना है कि सम्यग्दर्शन ज्ञान के साथ जो सम्यक्त्वाचरण है वह अविरत सम्यग्दृष्टि को मोक्षमार्गी सिद्ध करता है। उसे जघन्य अंतरात्मा कहा है। मिथ्या श्रद्धान, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र - इन तीनों की एकता संसारमार्ग है , बंधमार्ग है और सम्यक्श्रद्धान, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है। अविरतसम्यग्दृष्टि के मिथ्याश्रद्धान-ज्ञान-चारित्र तीनों ही नहीं है, तो प्रतिपक्षी सम्यक्श्रद्धान-ज्ञानचारित्र उसके प्रगट हुए होना चाहिए, क्यों कि उस तत्त्वज्ञानी के दुःख फल को पैदा करने वाले मिथ्याश्रद्धान-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र नहीं है। फिर भी उसे जो असंयमी कहा है उसका कारण अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों का उदय है। इसी बात की विशद चर्चा श्लोकवार्तिक प्रथम भाग पृष्ठ ५५३ से पृष्ठ ५५६ तक में हैं। तदनुसार - ___ 'मिथ्या दर्शनाद्यपक्षये क्षीयमाणश्च न स्यात्, इति संदिग्ध विपक्षव्यावृत्तिकत्वमपि न साधनस्य शंकनीयं सम्यग्दर्शनोत्पत्तावसंयत सम्यग्दृष्टे मिथ्यादर्शनस्यापक्षये मिथ्याज्ञानानु. त्पत्तेस्तत्पूर्वक मिथ्याचारित्रभावात्तन्निबंधन संसारस्यापक्षयप्रसिद्धः, अन्यथा मिथ्यादर्शनादि त्रयापक्षयेपि तदपक्षयाघटनात् ।' (सारांश-क्यों कि सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाने पर चतुर्थगुणस्थान वाले असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यादर्शन का -हास हो जाने पर मिथ्याज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो पाती है । अतः उन मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान को पूर्ववर्ती कारण मानकर होने वाले मिथ्याचारित्र का भी अभाव हो गया है। इस कारण उन तीन कारणों से उत्पन्न हुए संसार का भी -हास होना प्रसिद्ध

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