Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 50
________________ ५० चंद्राचार्यदेव ने इस गाथा टीका में लिखा है। वह इस प्रकार है-. . (इसलिए इन ९ तत्त्वों में भूतार्थ नय से एक जीव ही प्रकाशमान है ।) इस प्रकार यह एकत्वरूप से प्रकाशित होत हुआ शुद्ध रूप से अनुभव किया जाता है और जो यह अनुभूति है सो आत्मख्याति (आत्मा की पहिचान) है और जो आत्मख्याति है सो सम्यग्दर्शन ही है। इसप्रकार यह सर्व कथन निर्दोष हैं, ' बाधारहित है। जिज्ञासा १९ - तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकालंकार प्रथम खंड पृष्ठ ५५५ पर 'नहि चारित्रमोहोदयमात्रादभवच्चारित्र दर्शन चारित्र मोहोदयजनिताद- चारित्राद भिन्नमेवेति साधयितुं शक्यं सर्वत्र कारण भेदस्य फलाभेदकत्व प्रसक्तेः । सिद्धांतविरोधात् । .. इसके हिंदी अर्थ में पं. श्री माणकचंदजी कौदेय न्यायाचार्यजी ने चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को स्वरूपाचरण चारित्र (अचारित्र में) कहा है तथा जैन सिद्धांत प्रवेशिका में पं. गोपालदासजी बरैया ने प्रश्न १११ / ११२ में स्वरूपाचरण चारित्र कहा है । क्या आपको यह मान्य है? आपने किसी आर्षग्रंथ में स्वरूपाचरण शब्द का प्रयोग नहीं पाया अतः अमान्य किया, परंतु पं. गोपालदास जी बरैया ने जो स्वरूपाचरण चारित्र का कथन किया है उसे उसे मात्र सम्यक्त्वाचरण चारित्र का पर्यायवाची कहा जा सकता है, मान्य किया, परंतु सम्यक् चारित्र में गर्भित नहीं किया । सकता। इस बाबद पूर्व में काफी कुछ लिखा जा चुका है। इसमें मुझे कुछ विशेष नहीं कहना है। साथ में आपने यह जो लिखा है कि यह भी लिखना उचित होगा कि आ, कुंदकुंद ने अनंतानुबंधी के अभाव से सम्यक्त्वा चरण चारित्र नहीं माना है। अन्यथा तृतीय गुणस्थान में भी सम्यक्त्वाचरण मानना पड़ेगा, जो गलत होगा। तो कृपया विदित करायें कि सम्यक्त्वाचरण किसके अभाव में प्रगट होता है ? -तथा निम्नलिखित आठ अन्य जिज्ञासाओं का भी समाधान करने का कष्ट करें। जिज्ञासा २०- प्रवचनसार गाथा २०१ ता.वृ. ( एवं पणमिय सिद्धे) टीका में 'जिणवरवसहे' शब्द की टीका / व्याख्या में 'सासादनादिक्षीणकषायान्ता एकदेश जिना उच्यन्ते 'यह किस अपेक्षा से लिखा है? कृपया खुलासा करें। जिज्ञासा २१ - आपके अनुसार चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि सम्यक् चारित्र के न होने से मोक्षमार्गी ही नहीं है, तब फिर उसे जघन्य अंतरात्मा क्यों कहा है? -द्विविध संगबिन शुद्ध उपयोगी मुनि उत्तम निज ध्यानी । मध्यम अंतर आतम है जे देशव्रती अनगारी । नर .... जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी । - यह छहढाला में पं. दौलतराम जी ने क्या गलत लिख दिया है ? प्रमाण के लिए कृपया

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