Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 44
________________ ४४ में मत उलझो। ध्यानाभ्यासद्वारा धर्म्यध्यान / सम्यग्दर्शन प्रगट करो। विज्ञेषु किमधिकम् । यह बात तो सत्य ही है कि गृहस्थों के यति/मुनि के समान शुद्धात्मा की भावना, लीनता करना नहीं बनता, परंतु इसका अर्थ ऐसा भी नहीं है कि वह शुद्धात्मा की भावना भूमिकानुसार बिल्कुल ही नहीं कर सकता। इसीलिए कहा है - जं सक्कई तं कीरई, जंण सक्कई तं च सद्दहई । सद्दहमाणो जीवो पावई अजरामरं ठाणं ।। परमार्थतः जिसकी जितनी कषायें उतना ही दुःख आकुलता यह जीव भोगता है । जिसकी जितनी कषायें मिट जाती है, घट जाती है, वह उतना ही सुख, निराकुलता का वेदन करता है। निर्ग्रथता तो परिग्रह पाप का प्रायश्चित्त है और कुछ भी नहीं । स्वात्मानुभूति तो अंतरंग साधना का फल है। धर्म्यध्यान चौथे, पाँचवें, छठे गुणस्थानों में सविकल्पक मात्र ही नहीं होता है। प्रवचनसार गाथा १९६ (जो खविद कलुसो...) ता.वृ. टीका में ध्यान, ध्यान-संतान, ध्यानचिंता, ध्यानान्वयसूचनम् ऐसे ४ भेद दर्शाये हैं। उन पर विचार करना। क्यों कि सविकल्प से ही निर्विकल्प होने का विधान है। जो आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी ने रहस्यपूर्ण चिट्ठी में सरल भाषा में दिया है । जिज्ञासा ११ - जैनों एवं जैनेतर मतावलम्बियों के आत्मा के विश्वास में क्या कुछ अंतर होता है? क्यों कि अन्य मतावलंबी भी आत्मा के होने में विश्वास रखते हैं । महोदय ! इसका समाधान आपने ठीक ही किया है कि जैनेतर कुछ मत आत्मा का अस्तित्व तो मानते हैं, परंतु आत्मा के वास्तविक स्वरूप का परिचय न होने के कारण उसको कर्मबद्ध अशुद्ध अवस्था तथा उसके शुद्ध होने के उपायों का सही ज्ञान न होने के कारण अज्ञानी हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, उनके आत्मविश्वास रञ्चमात्र भी नहीं है। उनका आत्मविश्वास गृहित मिथ्यात्व सहित है, जब कि जैनियों का उससे रहित है। फिर प्रश्न होता है कि वर्तमान के कितने जैन गृहस्थ, पंडित, साधु गृहित मिथ्यात्व से रहित हैं? बल्कि उलटे गृहित मिथ्यात्व का ही पोषण कर रहे हैं और अभी फरवरी २००६ में श्रवणबेलगोला में जो महामस्तकाभिषेक होगा, क्या वह जैन संस्कृति का प्रतीक है ? विचारणीय है। हो सकता है, उसे देखने हम, आप भी जायें। एक बार आपकी जिनभाषित पत्रिका दोनों तेरा - बीस पंथी आम्नायों को सही ठहरा चुकी है, और उसका निषेधं वयोवृद्ध विद्वान पं. श्री नाथुलाल जी शास्त्री -इंदौर ने किया था । वर्तमान में यदि अनेकों जैन पंडित, साधु शिथिलाचारी हैं, तो अनेकों उत्सूत्रभाषी भी हैं । पंचम काल की बलिहारी ही समझना चाहिए ? , 网 जिज्ञासा १२ - वह आत्मा जिसका कि जैनों (सम्यग्दृष्टियों) को विश्वास होता है कि वह द्रव्यकर्म, नोकर्म (शरीर ), भावकर्म, (मोह - राग-द्वेष ) से रहित आत्मा होता है या इनके सहित होता है?

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