Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 41
________________ ४१ भवति। बंधात्संसारं परिभ्रमतीत्यभिप्रायः।' पुनश्च, समयसार गाथा-१७७,१७८ ता.वृ. टीका (रागो दोसो मोहो य आसवाणत्थि सम्मदिहिस्स। तम्हा आसवभावेण विणाहेदूण पच्चयाहोंति॥ हेदु जदुब्वियप्पो....) - टीका-रागद्वेषमोहाः सम्यग्दृष्टेन भवंति सम्यग्दृष्टत्वान्यथानुपपत्तेरिति हेतु: तथाहिअनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभ मिथ्यात्वोदयजनिता रागद्वेषमोहाः सम्यग्दृष्टेर्न- संतीति पक्षः। कस्मात्? इतिचेत् केवलज्ञानादि अनंतगुणसहित परमात्मोपादेयत्वे सति वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत षद्रव्यपंचास्तिकायसप्ततत्व नव पदार्थ रुचिरूपस्य मूढत्रयादि पंचविंशति दोष रहितस्य.....तथा चोक्तं आद्या सम्यक्त्वाचारित्रे द्वितीया ध्वनत्यणुव्रतं । तृतीयासंयमंतु-यथाख्यातं कुधादयः । अर्थ-चतुर्थगुणस्थान वाले सम्यग्दृष्टि जीव को राग-द्वेष-मोह नहीं होते हैं। क्यों कि इन भावों के होने पर सम्यग्दृष्टिपन बन ही नहीं सकता है। इसे स्पष्ट कर बतला रहे हैं किचतुर्थगुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि जीव के अनंतानुबंधी क्रोध,मान,माया,लोभ एवं मिथ्यात्व के उदय में होने वाले राग-द्वेष-मोह के भाव नहीं होते।...(इसीप्रकार पंचमगुणस्थान-वर्ती श्रावक के अनंतानुबंधी एवं अप्रत्याख्यानावरण दो कषाय तथा छठवें गुणस्थान वर्ती मुनि के अनंतानुबंधी,अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण ये तीन कषायरूप क्रोध-मान-माया-लोभ रूप राग-द्वेष-मोह नहीं होते हैं तथा सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनिराज वीतराग(वीतरागसम्यग्दृष्टि) के इन्हीं कषायों के तीव्र उदय जनित प्रमादोत्पादक राग-द्वेष-मोह नहीं होते। ___ और इसी प्रकार अन्य ग्रंथ में भी कहा है कि प्रथम मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी वाले क्रोध-मान-माया-लोभसम्यक्त्व और चारित्र इन दोनोंकोनहीं होनेदेते हैं। दूसरेअप्रत्याख्यानावरण कषाय सम्यक्त्व और स्वानुभूति/स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान को नहीं रोकते हैं, लेकिन अणुव्रत नहीं होने देते हैं। तीसरे प्रत्याख्यानावरण कषाय सम्यक्त्व और देशव्रत को नहीं रोकते हैं, लेकिन सकल संयम नहीं होने देते हैं। उपरोक्त कथन का तात्पर्य यही है कि चतुर्थ गुणस्थान में अनंतानुबंधी के अभाव में तज्जन्य क्रोधादि नहीं होते हैं और जो विशुद्धि प्रगटती है, उसे सम्यक्त्वाचरण चारित्र नाम दिया है। इस गुणस्थानवर्ती जीव के प्रगट दिखायी दे ऐसा देशव्रत/सकलव्रत का परिणम रूप चारित्र नहीं होता और न कोई आगमी अध्यात्मी मानता है कि ऐसा चारित्र होता है। जिज्ञासा ६ - प्र. सा. गाथा ८० एवं समयसार गाथा ३२० की तात्पर्यवृत्ति टीकाओं में क्रमशः करणलन्धिपूर्वक अविकल्पस्वरूप की प्राप्ति' तथा भव्यत्व शक्ति की व्यक्तता' का स्वरूप बतलाया है। क्या इसका अर्थ मात्र आत्मविश्वास होना ही सम्यग्दर्शन माना गया है?

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