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महोदय ! आपने तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टियों को सविकल्पावस्था में शुद्धात्मा की अनुभूति रहित आत्मविश्वास होना स्वीकारा, क्षायिक व औपशमिक को निर्दोष और क्षायोपशमिक वाले को सदोष ( क्यों कि उसके सम्यक्त्व मोहनीय का उदय है । ) मान्य किया है और यह विश्वास आपके अनुसार निर्विकल्प समाधि काल में शुद्ध आत्मानुभूति सहित तथा सविकल्प अवस्था में शुद्ध आत्मानुभूति रहित होता है। परंतु आपने सम्यग्दृष्टि जीव को जो आत्मानुभूति रहित आत्मा का विश्वास होना मात्र बतलाया / लिखा है, उसका आगम प्रमाण नहीं दिया ? आत्म विश्वास - आत्मा का विश्वास कौन से आगम-अध्यात्म ग्रंथों में आया है? इस शब्द की खोज आपने की है या कहीं पर लब्धिसारादि में लिखा हो कि अनिवृत्तिकरणोपरांत आत्म विश्वास / आत्मा का विश्वास मिथ्यात्व का उपशम हो जाने पर पूर्ण प्रगट हो जाता है। जैसा कि आपने जिज्ञासा ८ के समाधान में लिखा है तथा जिज्ञासा ६ के समाधान में भी आपने टीका में आये मूल शब्दों को गौणकरअपने मन मुताबिक अर्थ कर डाला है !
आत्मानुभूति कि गुण की पर्याय मानते हैं? और सविकल्प निर्विकल्प पर्याय किस गुण की पर्याय मानकर अर्थ कर रहे हैं? अनुभव, अनुभूति, वेदना संवेदन यह मति श्रुतज्ञान में ही होता है और साकार उपयोग सविकल्प ही होता है। परंतु मोक्षमार्ग में राग-द्वेष-मोह से उपयोग को बारंबार भ्रमाना ( एक ज्ञेय से दूसरे, दूसरे ज्ञेय से तीसरे ज्ञेय पर ले जाना) चंचल करने को ही विकल्प कहा है । इसकी स्पष्टता मो.मा.प्र. पृष्ठ २१०-२११ पर पं. टोडरमलजी ने की है। यदि आप ऐसा ही अर्थ • कर रहे हैं तब फिर प्रश्न है कि प्रवचनसार गाथा ८० की ता.वृ. टीका में करणलब्धि प्रविष्ट जीव को 'सविकल्प स्वसंवेदनज्ञानेन' तथा करणलब्धि (अनिवृत्तिकरण) के अनंतर समय में 'अविकल्प स्वरूपरूपे प्राप्ते' इन शब्दों का अर्थ आत्मानुभूतिपरक ही होता है या कोरे आत्मविश्वास रूप? वस्तुतः यह आत्मानुभूतिस्वरूप ही है। इससे चतुर्थ गुणस्थान में अविरत सम्यग्दृष्टि को तथा प्र.सा.माथा २४८ ता.वृ. टीकानुसार श्रावक पंचमगुणस्थानवर्ती को ( 'सामायिकादि क्वापि काले ' ) निर्विकल्प आत्मानुभूति की सिद्धि हो जाती है।
इतना ही नहीं, प्र.सा. गाथा २०१ में ( एवं पणमिय सिद्धे... ) तात्पर्यवृत्ति टीका में तो आ. जयसेन देव ने 'जिणवरवसहे' शब्द की व्याख्या में 'सासादनादि क्षीण कषायान्ता एकदेश जिना उच्यन्ते, शेषाश्चानागार केवलिनों जिनवराभण्यन्ते, तीर्थंकर परम देवाश्च जिनवर वृषभा इति तान् जिनवर वृषभान्। ... ') दूसरे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों को एकदेश जिन तक कहा है । इस बात को आप किस प्रकार मान्य करते हैं? मात्र आत्मविश्वास होने से ? या जात्यंतर ज्ञानानुभव / आत्मानुभव / सुखानुभव होने से ? यही बात समयसार गाथा १३ की टीका में कही है। निष्पक्ष होकर विचार करने पर यह बात जँचेगी / भासित होगी, अन्यथा नहीं ।
यह जीव अज्ञानी कल तक रहता है? यह पूछे जाने पर आ. जयसेनदेव ने समयसार गाथा१९ (कम्मे णोकम्महि... ) ता. कृ. टीका में बहिरात्मा को स्वसंवित्ति शून्य एवं स्वयंबुद्ध या