Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 29
________________ २९ मनिमद्रा स रहित को वदना मत करा। (५)प्रशस्त कषाय (शुभ राग ) से संवर, निर्जरा एवं पुण्यबंध दोनों होते हैं। ____परमार्थतः पाप (असाता)की संवर-निर्जरा अर्थात् अघातिकर्मों का आना, रूक जाना एवं सत्ता में उनका संक्रमण हो साता रूप हो जाना तो मान्य ही है, परंतु आत्मगुण घातक घातिकर्म की संवर-निर्जरा मानना कैसे संभव हो? कारण अंतिम ग्रैवेयक तक जाने वाले बाह्य से निग्रंथ महाव्रती द्रव्यलिंगी साधु को भी संवर-निर्जरा तत्त्व प्रगट मानना पड़ेगा जो ठीक नहीं है? उसके तो शुभयोग से अघातिया कर्मों की पुण्यप्रकृतियों का बन्ध होता है। व्यवहार करते-करते निश्चय वीतराग धर्म प्रगट हो जाता होता तो फिर श्वेताम्बर व दिगंबर मान्यता में फर्क ही क्या रहा? यद्यपि यह एक त्रैकालिक सत्य है कि महाव्रतरूप द्रव्यलिंग धारण किये बिना भावलिंग(तीन कषाय के अभावरूप) दशा प्रगट नहीं होती, इसी प्रकार अणुव्रतादि (व्यवहार देश संयम)धारण किये बिना दो कषाय के अभावरूप पंचम गुणस्थान (श्रावक दशा)प्रगट ही नहीं होती। इसीप्रकार सच्चे देव-शास्त्र-गुरु एवं उनके द्वारा उपदिष्ट प्रयोजनभूत तत्त्वों के निणयबिना (ज्ञान बिना) करणलब्धिरूप विशद्धि हो नहीं प्रगट हातो ता निश्चय अविकल्प दशा रूप सम्यक्त्व की भी प्राप्ति नहीं होती। अतः व्यवहारपूर्वचर एवं सहचर दोनों रूप साधक अवस्था में होता है, अथवा बुद्धिपूर्वक ग्रहण किया ही जाता है। परंतु इस समीचीन व्यवहार (अशुभ से निवृत्ति एवं शुभ में प्रवृत्ति) मात्र से दर्शन मोह-चारित्र मोह हट जायेंगे ऐसी मान्यता, विश्वास बनाये रखना प्रकारान्तर से मिथ्यात्व का ही पोषण है। अभिप्राय की भूल मिटे बिना सम्यग्दर्शनादि प्रगट नहीं हो सकते। प्रवचनसार जी गाथा ७७ एवं समयसार गाथा १५४ इस बात की साक्षी है। ... आ.क.पं.टोडरमलजी ने अभिप्राय की भूल सुधारे बिना सम्यक्त्व की उपलब्धि संभव ही नहीं होती-इसके लिए ही तो उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ की रचना की है। उन्होंने कहीं पर भी व्यवहार धर्म पालना नहीं छुडाया.है। मेरा अपना निष्कर्ष है कि जैन धर्म जो कि सम्प्रदायातीत है, वस्तु के स्वभाव को दर्शाने वाला है, वह किसी भी प्रकार से मिथ्यात्व व कषायों का अथवा हिंसादि पापों का पोषने वाला नहीं है। और उपचरित व्यवहार धर्म को निश्चय धर्म का मात्र सहचारी साधन निरूपित करने वाला है। संक्षेप में कहूँ तो जो पाप में जाने नहीं देता और पुण्य को निश्चय वीतराग धर्म मानने नहीं देता, बस,यही जैन धर्म का सार है। तभी तो समयसार में १२ वीं गाथा की आत्मख्याति टीका में प. पू. अमृतचंद्राचार्य देव ने यह गाथा दी है। जई जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्यं अण्णेण उण तच्वं ।। अस्तु । पापों में जाने की एवं पुण्य को निश्चय वीतराग धर्म मानने की जिनाज्ञा तो नहीं है परंतु पापों से बचने के लिए एवं निश्चय वीतराग धर्म (अकषायभाव)की प्राप्ति के लिए

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