Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 32
________________ ३२ रूप परिणाम)एक ही प्रकार का होता है, उसे श्रद्धा/सम्यक्त्व गुण की अनैमित्तिक निर्मल पर्याय कहा है। इसको ही निसर्गज-अधिगमज भेद से दो प्रकार का, अंतरंग निमित्तापेक्षा से औपशमिक,क्षायोपशमिक,क्षायिक के भेद से तीन प्रकार का, बहिरंग निमित्तापेक्षा से आज्ञा,मार्ग,उपदेश,सूत्र,बीज,संक्षेप,विस्तार,अर्थ,अवगाढ़,परमावगाढ़ के भेद से दस प्रकार का कहा है। पुनश्च,निरूपण की अपेक्षा से निश्चय(वीतराग/स्वाश्रित)एवं व्यवहार (सराग/ पराश्रित)ये दो प्रकार का तथा सहचारी शुभ,शुद्ध चारित्रापेक्षा सराग-वीतराग भेद से दो प्रकार का तथा ज्ञानापेक्षा अवगाढ़-परमावगाढ़ भेद से दो प्रकार का कहा है। २. परमार्थतः सर्व सम्यग्दर्शन साक्षात् या परंपरा से अधिगमज ही होते हैं। जब कि चारित्र तो अधिगमज ही होता है। (देखो.- श्लोकवार्तिक ३ रे सूत्र की टीका) ... ३. निश्चय सम्यग्दृष्टि को (जिसको दर्शनमोह + अनंतानुबंधी चतुष्क का उपशम, क्षयोपशम, क्षय हुआ है।) नियम से १) देव-गुरु-धर्म/देव-शास्त्र-गुरु का, २) तत्त्वार्थों का, ३)स्व-पर का,४)निज शुद्धात्मा का (द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्म रहित निज ध्रुवचिदानंदात्मा का) श्रद्धान होता ही होता है। निश्चय सम्यग्दृष्टि के ये चारों लक्षण युगपत् पाये जाते हैं। (देखो-मोक्षमार्ग प्रकाशक-९/३२८) ४. सम्यक्त्वप्राप्ति के लिए बहिरंग निमित्तों में १) जातिस्मरण २)वेदना ३) धर्मश्रवण (देशना) ४)जिनबिंब दर्शन ५)समवशरणादि विभूति युक्त जिन महिमा दर्शन ६)देवर्द्धि दर्शन आदि जो कहें हैं उन सब में देशना प्रधान है। नियमसार गाथा ५३ में कहा है-'सम्मतस्यणिमितं जिणसुतं तस्स जाणया पुरिसा। .. अन्तरहेऊ भणिदा दंसण मोहस्स खय पाहुदी॥५३॥ ५. प्रवचनसार गाथा ८०- 'जो जाणदि अरहतं दव्वत्त गुणत्तपज्जयतेहि।। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥८॥ इस गाथा में मोहो शब्द दर्शनमोह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है - ऐसा स्पष्टार्थ तात्पर्यवृत्ति टीका में पू.जयसेनाचार्य देव ने किया है तथा करणलब्धि में सविकल्प स्वसंवेदन एवं अनिवृत्तिकरणोपरान्त अविकल्प स्वरूप की प्राप्ति होना लिखा है। -अब मैं मूल विषय पर जिज्ञासाक्रम से चर्चा करता हूँ। जिज्ञासा १-निश्चय-व्यवहार सम्यग्दर्शन का क्या लक्षण है?परिभाषा रूप बताइए। निश्चय-व्यवहार सम्यग्दर्शन की जो परिभाषाएँ आपने दी है वे सर्व मान्य ही है। परंतु उस पर से आपने क्या अर्थ निकाला? यही न कि गृहस्थ अवस्था में भी निश्चयसम्यक्त्व (निज शुद्धात्मा ही उपादेय)होता है तथापि चारित्र मोहोदय से होने वाली अस्थिरता वश वह सम्यग्दृष्टि जीव 'विषय-कषायवंचनार्थ संसार स्थिति छेदना वा पंचपरमेष्ठीषु गुणस्तवनादि भक्ति करोति। तब वह सराग सम्यग्दृष्टि कहलाता है। क्यों कि दर्शनमोह+ अनंतानुबंधी कषाय के उपशम, क्षयोपशम, क्षय से होने वाला विपरिताभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप आत्मा का परिणाम ही निश्चय सम्यक्त्व है । ऐसा निश्चय सम्यक्त्वी जब

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