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पं.ब्र. हेमचंद्र जैन 'हेम' (भोपाल) द्वारा लिखित जवाब -
दि. ३०-०९-२००५/०१.११.२००५ . आदरणीय आगमवेत्ता विद्वद्वर श्री पं. रतनलालजी बैनाड़ा, जैन, सादर जायजिनेंद्र |
आपका २४.८.०५ का पत्र मेरे भोपाल पते से रिडाइरेक्ट होकर यहाँ देवलाली (नासिकमहाराष्ट्र) पते पर प्राप्त हुआ । मैं १ माह से बाहर ( चैन्नई, पोन्नूर ) गाँव में था । वहाँ पर्युषण पर्व में एकांत स्थान - श्री कुंदकुंदाचार्य देव की तपोभूमि में दसम प्रतिमाधारी मेरे मित्र ब्र. आदिनाथन के साथ तत्त्वचर्चा का लाभ लेता था । क्षमावाणी पर्व पर उत्तम क्षमा चाहता हूँ। मैंने अपनी जिज्ञासाओं का समाधान जिनभाषित पत्रिका में अगस्त-सितंबर के अंक में भी नहीं पाया तो सोचा शायद शायद समाधान नहीं आयेगा । परंतु आपने भारी श्रम कर समाधान करने का प्रयास इस पत्र में किया है । तदर्थ बहुत बहुत धन्यवाद । साथ ही आपने आचार्यश्री के मंगल सान्निध्य में जिज्ञासा समाधानार्थ उपस्थित होने का सुझाव दिया है। स्वास्थ्य अनुकूलता रही तो अवश्य ही आगम-अध्यात्म की गहन तत्त्वचर्चा समाधान हेतु, संत समागम हेतु समय निकाल कर सूचित करूँगा ।
आदरणीय बैनाड़ा जी ! आप आगमवेत्ता है। ज्ञान की निर्मलता के लिए आगम के आलोक में जिज्ञासाओं का समाधान खोजना भ्रांतियों में स्थित होना तो नहीं माना जा सकता?आगम अगाध है । ' को न विमुह्यति शास्त्र समुद्रे ।' आप आ. क. पं. टोडरमलजी के मोक्षमार्गप्रकाशक के आधार से भी समाधान प्रस्तुत करते हैं, फिर भी उनके सर्व कथनों को क्यों नहीं मान्य करते? आप आत्मविश्वास / आत्मा के विश्वास को एवं आत्मानुभूति को एक नहीं मानते। क्षायिक सम्यग्दृष्टि को भी निश्चयसम्यक्त्वी नहीं मानते, सराग व्यवहार सम्यक्त्वी ही मानते हो? जब कि क्षायिक नवलब्धियों में प्रथम लब्धि क्षायिक सम्यक्त्व ही है ।
मिथ्यात्वी एवं सम्यग्दृष्टि जीवों के होने वाली कर्मोदयजन्य सुख - दुःखानुभूति में आप अवश्य ही अंतर तो मानते होंगे ? सम्यक्त्वी को मिथ्यात्वं व अनंतानुबंधी चतुष्कं के अभाव में निश्चित ही निराकुलत्व लक्षण आत्मोपलब्धि रूप सुखानुभूति का आंशिक प्रगटपना ही न माना जाये तो सम्यक्त्वोपलब्धि का क्या फायदा?
फिर श्रावक (देशसंयमी) के दो कषाय चौकड़ी के अभावरूप निराकुलत्वलक्षण सुखानुभूति नहीं मानी जाये तो फिर सकल संयमी (मुनिराज ) के तीन कषायों के अभावरूप प्रचुर स्व-संवेदनरूप आत्मिक निराकुलत्वलक्षण आनंदानुभूति भी नहीं मानी जा सकेगी! और फिर चारों कषायों के अभाव में क्षीणमोहजिन में भी पूर्ण निराकुलत्वलक्षण सुख आनंदानुभूति का उद्भव भी नहीं माना जा सकेगा। अतः न्याय संगत यही है कि मिथ्यात्व एवं क्रोधादि कषायों का अभाव ही सुख है, स्वात्मानुभूति है । आ. क. पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ९ वाँ - (हिन्दी) पृ. ३३७ में लिखा है