Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 26
________________ २६ आत्मा के शुद्ध स्वरूप का भान कर लेते हैं, अशुद्ध दशा को अशुद्धि के रूप में जान लेते हैं उनका यह वास्तविक ज्ञान ही आत्मख्याति नाम से कहा जाता है और आत्मा की इस शुद्धनय से जानी गयी अवस्था का विश्वास ही सम्यग्दर्शन है। शुद्धनय से जीव को जानने से ही सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो सकती है और जब तक इसप्रकार आत्मा को नहीं जानता है तब तक पर्यायबुद्धि वाला होता हुआ मिथ्यादृष्टि ही है। अनादिकाल से इस जीव ने नैमित्तिक भावों में छिपी हुई इस आत्मज्योति को नहीं पहचाना था। उस आत्मज्योति को शुद्ध नय के द्वारा ही प्रकाशमान किया जा सकता है। यह प्रसंग समयसार का है। इस ग्रंथ में वीतराग सम्यग्दृष्टि की ही प्रधानता है। जैसा कि आ. जयसेन ने विभिन्न स्थानों पर स्वयं टीका में कहा है कि इस ग्रंथ में मुख्य रूप से निर्विकल्प समाधि में स्थित सम्यग्दृष्टि का ही ग्रहण किया गया है, अन्य का गौण वृत्ति से किया है। अतः इसे उक्त आलोक में ही देखिएगा । जिज्ञासा १९.- तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार प्रथम खण्ड पृष्ठ ५५५ पर - 'न हि चारित्र मोहोदय मात्राद्भवच्चारित्रं। दर्शन चारित्र मोहोदयजनितादचारित्र दभिभमेवेति साधयितुं शक्य; सर्वत्र कारण भेदस्य फलाभेदकत्वप्रसक्तेः। सिद्धांतविरोधात्।। अर्थ-इसके हिंदी अर्थ में पं.माणिकचंद जी कौंदेय न्यायाचार्य जी ने चतुर्थ गुणस्थानवर्ती का स्वरूपाचरण चारित्र अचारित्र में कहा है तथा जैन सिद्धांत प्रवेशिका में पं. गोपालदास जी बरैया ने प्रश्न १११/११२ में स्वरूपाचरण चारित्र कहा है। क्या आपको यह मान्य है? समाधान-मैंने ऊपर प्र.नं. १४ के उत्तर में स्पष्ट कहा है कि किसी भी आचार्य ने अपने द्वारा रचित किसी भी ग्रंथ में स्वरूपाचरण चारित्र नाम का कोई चारित्र उल्लखित नहीं किया है । पं. माणिकचंद जी कौंदेय ने स्वरूपाचरण चारित्र को अचारित्र माना है और पं. गोपालदासजी बरैया ने स्वरूपाचरण चारित्र का कथन किया है। उसे मात्र सम्यक्त्वाचरण चारित्र का पर्यायवाची कहा जा सकता है परंतु सम्यक् चारित्र में गर्भित नहीं किया जा सकता। यह भी लिखना उचित होगा कि आ.कुंदकुंद ने अनंतानुबंधी के अभाव से सम्यक्त्वाचरण चारित्र नहीं माना है। अन्यथा तृतीय गुणस्थान में भी सम्यक्त्वाचरण मानना पड़ेगा जो गलत होगा। धर्म्यध्यान - आगम के आलोक में जो जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो। सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं॥.....भावपाहुड ६१॥ केवलणाणसहावो केवलदसणसहावो सुहमइओ। कंवलसत्तिसहावो सो हं इदि चिंतए णाणी॥ ..... नियमसार ९६॥

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