Book Title: Dharmmangal
Author(s): Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 20
________________ २० समाधान-समयसार गाथा १३ की टीका जो उपर प्रश्न क्र. ४ के उत्तर में लिखी गयी है, उसके अनुसार शुद्ध आत्मस्वरूप की अनुभूति को निश्चय सम्यक्त्व या वीतराग सम्यक्त्व कहा है। तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टियों को सविकल्प अवस्था में शुद्धात्मा की अनुभूति रहित आत्म विश्वास तो होता है जो क्षायिक और उपशम सम्यग्दृष्टियों के निर्दोषरूप होता है। जब कि क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों के सदोषरूप होता है। तदनुसार औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के आत्मविश्वास एक सदृश कहा गया है और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने के कारण भिन्न रूप से कहा गया है। यह विश्वास निर्विकल्प समाधिकाल में शुद्ध आत्मानुभूति सहित होता है और सविकल्प अवस्था में शुद्ध आत्मानुभूति रहित होता है। जिज्ञासा ६- प्रवचनसार गाथा ८० - जो जाणदि अरिहंत एवं समयसार गाथा ३२० -दिट्ठी जहेव णाणं की श्रीमद् प. पू. जयसेनाचार्य विरचित तात्पर्यवृत्ति टीकाओं में क्रमशः करणलब्धिपूर्वक अविकल्प स्वरूप की प्राप्ति तथा भव्यक्त्व शक्ति की व्यक्तता का स्वरूप बतलाया है। क्या इसका अर्थ मात्र आत्मविश्वास होना ही सम्यग्दर्शन माना गया है ? समाधान- उपरोक्त दोनों गाथाओं की टीका में अविकल्प स्वरूप की प्राप्ति तथा भव्यत्व शक्ति की व्यक्तता का जो उल्लेख आया है उसका तात्पर्य मात्र आत्मविश्वास- रूप सम्यग्दर्शन ही है। क्यों कि उपरोक्त समाधानों से यह स्पष्ट हो चुका है कि शुद्ध आत्मस्वरूप की अनुभूति तो निश्चय चारित्र के अविनाभावी, निश्चय सम्यक्त्व होने पर ही होती है । --- * --- जिज्ञासा ७. - प्रवचनसार गाथा ८० की तात्पर्यवृत्ति के प्रारंभ में लिखित'अथ चत्तापावारंभ---(गाथा ७९) इत्यादि सूत्रेण यदुक्तं शुद्धोपयोगाभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादिविनाशाभावे शुद्धात्मलाभो न भवति '... का क्या अर्थ है ? . समाधानं- इसका अर्थ बहुत स्पष्ट है कि मोहनीय कर्म का नाश इसके बिना नहीं हो सकता और मोहादि के नाश के बिना शुद्धात्मा का लाभ नहीं होता अर्थात् वीतरागता प्राप्त नहीं होती । गाथा ७९ तात्पर्यवृत्ति में स्पष्ट कहा गया है कि जो साधक शुभोपयोग की परिणतियों में परिणमन करके अंतरंग में मोही होकर यदि निर्विकल्प समाधि लक्षण पूर्व में कहे हुए मोह रहित शुद्ध आत्मतत्त्व के विरोधी मोह आदि को नहीं छोड़ता । तो वह जिन या सिद्ध के समान अपने आत्मस्वरूप को नहीं जान पाता । अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए मोहादि का विनाश होना आवश्यक होता है और मोहादि के विनाश के लिए शुद्धोपयोग आवश्यक है । 7 यहाँ मोह का अभाव शुद्धोपयोग से ही होता है यह जो अवधारणा दी गयी है इसका अर्थ दर्शनमोह नहीं, चारित्रमोह लगाना चाहिए।

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