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धर्मपरीक्षा
लकारका उपयोग किया गया है । उत्तरवर्ती प्राकृत में भी इस प्रकार के कुछ तत्सम प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं । साथ ही एक और वास्तविक स्थिति यह है कि अमितगतिने अनायास ही जिन प्राकृत शब्दों का उपयोग किया है, उनके स्थानपर संस्कृत शब्दोंको वह आसानीसे काम में ले सकते थे । मिरोनो तो इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि प्रस्तुत रचना के कुछ अध्याय किसी प्राकृत मूल ग्रन्थके आधारसे तैयार किये गये हैं । छोहारा ( ७-६३ ) और संकारतमठ ( ७ - १०) जैसे उपयुक्त नाम इस बातको पुष्ट करते हैं कि कुछ कथाएँ अवश्य ही किसी मूल प्राकृत रचनासे ली गयी हैं । एक स्थानपर इन्होंने संस्कृत योषा शब्दकी शाब्दिक व्युत्पत्ति बतायी है और उनके इस उल्लेखसे ही मालूम होता है कि वे किसी मूल प्राकृत रचनाको ही फिरसे लिख रहे हैं । अन्यथा संस्कृत के योषा शब्दको जुष्-जोष जैसी क्रियासे सम्पन्न करना अमितगतिके लिए कहाँ तक उचित है ? वे पद्य निम्न प्रकार हैं
यतो जोषयति क्षिप्रं विश्वं योषा ततो मता । विदधाति यतः क्रोधं भामिनी भण्यते ततः ॥ यतश्छादयते दोषैस्ततः स्त्री कथ्यते बुधैः । विलीयते यतश्चित्तमेतस्यां विलया ततः ॥
उपरि लिखित संकेत इस निर्णयपर पहुँचने के लिये पर्याप्त हैं कि रचना के सहारे अपनी रचना तैयार की है । इसमें सन्देह नहीं कि उपदेशपूर्ण स्वतन्त्र रूपसे लिखा है । हमें ही नहीं, बल्कि अमितगतिको भी इस बातका भाषापर अधिकार है । उन्होंने लिखा है कि मैंने धर्मपरीक्षा दो महीने के भीतर और अपनी संस्कृत आराधना चार महीने के भीतर लिखकर समाप्त की है । यदि इस प्रकारका कोई आशु कवि प्राकृतके ढांचेका अनुसरण करता हुआ संस्कृतमें उन रचनाओं को तैयार करता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । इसके साथ ही अमितगति मुञ्ज और भोजके समकालीन थे, जिन्होंने अपने समयकी संस्कृत विद्याको बड़ा अवलम्ब या प्रोत्साहन दिया था । उनकी आराधना इतनी अच्छी है जैसे कि वह शिवार्यकी प्राकृत आराधनाका निकटतम अनुवाद हो और उनका पंचसंग्रह प्रधानतः प्राकृते पंचसंग्रहके आधारपर ही तैयार किया गया है जो एक हस्तलिखित रूप में उपलब्ध हुआ है और जिसे कुछ ही दिन हुए पं. परमानन्दजीने प्रकाशमें लाया है । इस प्रकार अमितगतिने अपनी संस्कृत धर्मपरीक्षाकी रचना किसी पूर्ववर्ती मूलप्राकृत रचना के आधारपर की है, इसमें हर तरह की सम्भावना है ।
हरिषेणकी अपभ्रंश धर्मपरीक्षा
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अमितगतिने किसी मूल प्राकृत विवेचनोंमें उन्होंने स्वयं ही विश्वास था कि उनका संस्कृत
जो अमितगतिको घर्मपरीक्षासे २६ वर्ष पहले लिखी गयी है और विवरण तथा कथावस्तुकी घटनाओंके क्रमकी दृष्टिसे जिसके साथ अमितगति पूर्णरूपसे एकमत हैं—को प्रकाशमें लाने के साथ ही इस प्रश्नपर विचार करना आवश्यक है कि क्या अमितगति अपने कथानकके लिये हरिषेणके ऋणी हैं ? इस सम्बन्ध में हरिषेणने जो एक महत्त्वपूर्ण बात बतलायी है वह हमें नहीं भूल जानी चाहिए । उन्होंने लिखा है कि जो रचना जयरामकी पहलेसे गाथाछन्द में लिखी थी उसीको मैंने पद्धरिया छन्द में लिखा है । इसका अर्थ है कि हरिषेणके सामने भी एक धर्मपरीक्षा थी जिसे जयरामने गाथाओंमें लिखा था और जिसकी भाषा महाराष्ट्री या शौरसेनी रही होगी । जहाँ तक मेरी जानकारी है, इस प्राकृत धर्मपरीक्षा की कोई भी प्रति प्रकाशमें नहीं आयी है और न यह कहना सम्भव है कि यह जयराम उस नामके
१. अत्र भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित ।
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