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[३] अमितगति, ४.८४-८५
पत्युरागममवेत्य विटौधैः सा विलुण्ठ्य सकलानि धनानि । मुच्यते स्म बदरीदरयुक्तस्तस्करैरिव फलानि पथिस्था ॥ सा विबुध्य दयितागमकालं कल्पितोत्तमसतीजनवेशा । तिष्ठति स्म भवने पमाणा वञ्चना हि सहजा वनितानाम् ॥ [४] हरिषेण २, १५
भणिउ तेण भो णिसुणहि गइवइ, छाया इव दुगेज्झ महिला मइ ।
[४] अमितगति ५, ५९
[५] हरिषेण २, १६ –
चौरीव स्वार्थतन्निष्ठा वह्निज्वालेव तापिका । छायेव दुर्ग्रहा योषा सन्ध्येव क्षणरागिणी ॥
प्रस्तावना
भणिउता संसारे असारए कोवि ण कासु वि दुह-गरुयारए ।
[५] अमितगति ५, ८२-८५
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- सहु अत्थु गच्छइ सयणु मसाणु जारम अणुगच्छइ । धम्माहम्मु णवरु अणुलग्गउ गच्छइ जीवहु सुह- दुह-संगउ । इय जाणेवि ताय दाणुल्लउ चित्तिज्जइ सुपत्ते अइभल्लउ । देउ यि मणि झाइज्जइ सुह-गइ-गमणु जेण पाविज्जइ ।
अमितगतिका रचना सौष्ठव
तं निजगाद तदीयतनूजस्तात विधेहि विशुद्धमनास्त्वम् । कंचन धर्ममपाकृतदोषं यो विदधाति परत्र सुखानि ॥ पुत्रकलत्रधनादिषु मध्ये कोऽपि न याति समं परलोकम् । कर्म विहाय कृतं स्वयमेकं कर्तुमलं सुखदुःखशतानि ॥ कोsपि परो न निजोऽस्ति दुरन्ते जन्मवने भ्रमतां बहुमार्गे । इत्थमवेत्य विमुच्य कुबुद्धि तात हितं कुरु किंचन कार्यम् ॥ मोहमपास्य सुहृत्तनुजादौ देहि धनं द्विजसाधुजनेभ्यः । संस्मर कंचन देवमभीष्टं येन गति लभसे सुखदात्रीम् ॥
अमितगति अपनी निरूपण कलामें पूर्ण कुशल हैं और उनका सुभाषितसंदोह सालंकार कविता और अत्यन्त विशुद्ध शैलीका सुन्दर उदाहरण है । वह संस्कृत भाषाके व्याकरण और कोषपर अपना पूर्णाधिकार समझते हैं और क्रियाओंसे भिन्न-भिन्न शब्दोंको निष्पत्तिमें उन्हें कोई कठिनाई नहीं मालूम होती । इनकी धर्मपरीक्षा में अनुसन्धान करनेपर बहुत कुछ प्राकृतपन मिलता है । लेकिन अपेक्षाकृत वह बहुत कम है और सुभाषित सन्दोह में तो उसकी ओर ध्यान ही नहीं जाता । धर्मपरीक्षामें जो प्राकृतका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । वह केवल कुछ उधारू शब्दों तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह अधिकांशमें धातु - सिद्ध शब्दों के उपयोग तक पहुँच गया है जैसा कि हम कुछ उदाहरणोंसे देख सकते हैं । 'जो धातुरूपभूत कर्म-कृदन्तके रूपमें उपयुक्त किया है वही बादकी प्राकृतमें करीब-करीब कर्तृरूपमें व्यवहृत हुआ है । और यह ध्यान देने की बात है कि द्विवचन और बहुवचनमें आज्ञासूचक लकारके स्थान में स्वार्थसूचक
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