Book Title: Dhanpal Panchashika
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ (२५) कदाचिदपि कस्मिंश्चिदेशे काले वा पुनः पुनरात्मानं दर्शयेः ॥ए। अ माणग्गिपलीविअकम्मिन्धणबालबुधिणा विमए॥ भत्तीइ थुओ नवनयसमुद्दबोहित्यबोहिफलो. ॥३॥ [इति ध्यानाग्निप्रदीपितकर्मेन्धनबालबुद्धिनापि मया ।। नक्या स्तुतो भवनयसमुज्यानपात्रबोंहिफल:]॥५॥ बालस्येव चातुर्यरहिता बुधिर्यस्य या बाला तन्वी बुधियस्य बोधिर्जिनधर्मावाप्तिस्तां फलति बोधिफनः स त्वमेवंविधो नवनयमेव अनब्धमध्यत्वेन सुस्तरत्वेन समुनस्तत्र बोहित्थं प्रवहणं ॥२०॥ इति पंमित श्री धनपाल कवि विरचित ऋषन पंचाशिका वचूरिसमेता संपूर्णा. 0000000000002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64