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अंतश्चक्षु खोल
नहीं पकड़ लेना है कि कारागृह हो जाए। गांठ नहीं बांध लेनी है, भांवर नहीं पाड़ लेनी है। ऐसा मत कर लेना कि यह भी एक बंधन हो जाए, फिर छूटे न छुटाए बने। इसे भी कल छोड़ ही देना है। देर-अबेर इसे भी छोड़ देना है।
और अगर तुम्हें यह खयाल में रहे कि देर-अबेर यह भी छूट ही जाएगा; जब संदेह ही चला जाता है तो श्रद्धा का फिर करोगे क्या? संदेह के रोग के लिए श्रद्धा की औषधि थी। अब इन बोतलों को छाती से लगाए घूमते रहोगे, जब बीमारी ही न रही? ध्यान रखना, कभी-कभी बोतलें बीमारी से भी महंगी हो जाती हैं। बीमारी तो छूट जाती है, फिर बोतलें पकड़ जाती हैं। अब बोतलों को लिए घूमते हो।
बुद्ध ने कहा है, कुछ पागल नाव से नदी पार कर लेते हैं, फिर नाव को सिर पर रखकर बाजार में घूमते हैं। अब इन्हें कोई समझाए कि यह तुम क्या कर रहे हो! तो वे बड़ा तर्क देते हैं। वे कहते हैं, इस नाव ने ही नदी पार करवाई; अब इस नाव को हम कैसे छोड़ सकते हैं? इस नाव का इतना उपकार है हमारे ऊपर कि हम तो इसे सिर पर लेकर चलेंगे।
. इससे तो बेहतर था कि वे नदी ही पार न करते। कम से कम बोझ से तो मुक्त थे। उस पार ही रहते, कम से कम चलने-फिरने की तो स्वतंत्रता थी। अब तो चलने-फिरने की स्वतंत्रता भी गई...यह बोझ नाव का!
लेकिन नाव का इसमें कुछ कसूर नहीं। तुम्हारी पकड़ने की आदत पड़ गई है। पकड़ने की आदतभर छोड़नी है और कुछ छोड़ने जैसा नहीं है। पकड़ने की आदतभर छोड़नी है और कुछ त्याग करने जैसा नहीं है। वही नहीं छूटती।
___ पाप छूट जाता है, पुण्य पकड़ जाता है। संदेह छूटता है, श्रद्धा पकड़ जाती है। निराशा छूटती है, आशा पकड़ जाती है। संसार छूटता है, मोक्ष पकड़ जाता है। लेकिन पकड़ जारी रहती है। पकड़ ही संसार है। छोड़ दो। छोड़कर जीयो। कुछ बिना पकड़े जीयो। ___ जो जानते हैं, वे तो नदी में भी नाव का उपयोग नहीं करते। जो नहीं जानते, वे बाजारों में नाव लेकर सिर पर चलते हैं। जो जानते हैं, वे तैरकर ही पार हो जाते हैं, नाव की कोई जरूरत नहीं है। उनके लिए इशारे काफी होते हैं, बुद्ध पुरुषों की अंगुलियां काफी होती हैं। उन इशारों से वे नाव बना लेते हैं। उन इशारों की ही नाव बन जाती है। कोई स्थूल नाव की जरूरत नहीं है। संप्रदाय बनाने की जरूरत नहीं है, धर्म काफ़ी है। __धर्म और संप्रदाय का यही फर्क है। धर्म है मात्र इशारा, इंगित; संप्रदाय है बड़ी ठोस नाव-नाव भी लकड़ी की नहीं, पत्थर की; डुबाएगी। पार इससे तुम न हो सकोगे।
तो घबड़ाओ मत, द्वंद्व बिलकुल स्वाभाविक है। उदास मत हो जाओ। यह द्वंद्व बिलकुल ही जैसा मन का स्वभाव है; होगा। इससे कुछ थक जाने की, इससे कुछ
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