Book Title: Dhammapada 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 293
________________ एस धम्मो सनंतनो तरबतर थे, एक मेघ आया और बरस गया, सब शीतल हो गया। लेकिन सनने की कला चाहिए। तार्किक को सुनने के लिए कोई कला की जरूरत नहीं, क्योंकि उसके लिए तो समाज ही तुम्हें तैयार कर देता है। तर्क की भाषा के लिए तुम पूरी तरह निष्णात हो। सत्य की भाषा के लिए तुम्हारी कोई तैयारी नहीं है। सत्य की भाषा अनिवार्य रूप से विरोधाभासी होगी। उपनिषद कहते हैं, परमात्मा पास से भी पास, दूर से भी दूर। अगर इतना कहें, पास से भी पास, ठीक; अगर इतना ही कहें, दूर से भी दूर, तो भी ठीक; लेकिन एक ही वक्तव्य में विरोध है; पास से भी पास और दूर से भी दूर। तर्क के बाहर हो गई बात। बुद्ध से पूछो, तुम जो भी पूछोगे बुद्ध से, सभी उत्तर विरोधाभासी आएंगे। सत्य का स्वभाव विरोधाभासी है। क्यों? क्योंकि सत्य इतना विराट है कि सभी विरोध उसमें समाए हैं। तर्क बड़ा छोटा है; उसकी साफ-सुथरी सीमा-रेखा है। सत्य की कोई सीमा-रेखा नहीं। सत्य सागर है, तर्क छोटे-छोटे पोखर हैं, डबरे हैं; उनकी सीमा-रेखा है। छोटी सी बुद्धि में सीमा-रेखा की बातें समा जाती हैं, समझ में आ जाती हैं। तुम से बड़ी बात है सत्य की; तुम उसे छू लो तो काफी; तुम उसे मुट्ठी में न बांध पाओगे। बुद्ध ने कहा है, 'निरर्थक पदों से युक्त हजार पदों से भी एक सार्थक पद श्रेष्ठ ___ कौन सा पद सार्थक है? ऐसे तो हम जो भी बोलते हैं, अगर भाषाशास्त्री से पूछोगे तो सभी सार्थक हैं। जो व्याकरण के नियमानुसार कहा गया, जिसने भाषा का कोई नियम, रीति उल्लंघन न की, वह सभी सार्थक है। सार्थकता व्याकरण में है, सार्थकता भाषा के नियमों में है। बुद्ध पुरुष इसे सार्थक नहीं कहते। बुद्ध पुरुष कहते हैं, सार्थकता बोलने वाले के अनुभव में है; व्याकरण के नियम पालन हों या न हों। कबीर कोई व्याकरण नहीं जानते, लेकिन काशी में जितने भी पंडित थे उस समय, सब भी एक तरफ रख दिए जाएं तराजू पर और कबीर अकेले एक तरफ तराजू पर रख दिए जाएं, तो भी सारे पंडित मिलाकर कबीर के पलड़े को ऊपर न उठा सकेंगे; वे नीचे जमीन पर ही बैठे रहेंगे। पंडित अधर में ही अटके रहेंगे। पूरी काशी भी एक कबीर के पलड़े को ऊपर नहीं उठा सकती। एक कबीर पूरी काशी से ज्यादा हैं; हालांकि व्याकरण तो नहीं है, भाषा तो नहीं है। कबीर तो गंवार हैं, पढ़े-लिखे नहीं हैं। कहा है कबीर नेः मसि कागद छुयो नहीं। कभी छुआ ही नहीं कागज-कलम। मगर जो कहा है, वेद के ऋषि भी झेंप 280

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