Book Title: Dhammapada 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 294
________________ शब्द : शून्य के पंछी जाएं, उपनिषद के स्रष्टा शर्माएं-एक गंवार की भाषा में। न कोई तुक है, न कोई व्यवस्था है, लेकिन फिर भी जो कहा है, वह जानकर कहा है। अर्थ भीतर से आ रहा है, अर्थ बाहर की किसी व्यवस्था से संयुक्त नहीं है। अर्थ भीतर के अनुभव से आ रहा है। __ ऐसा समझो कि तुमने प्रेम के संबंध में बहुत से शास्त्र पढ़े हैं और फिर प्रेम के संबंध में तुम कुछ लिख दो, जरूर सार्थक मालूम होगा, होगा नहीं। सार्थक मालूम तो होगा, क्योंकि तुम जो भी लिखोगे, उसमें व्यवस्था होगी, संगति होगी, तर्कसरणी होगी; लेकिन सार्थक हो नहीं सकता, क्योंकि प्रेम तुमने जाना नहीं। और अक्सर ऐसा होता है कि प्रेम को जो नहीं जानते, वे प्रेम के संबंध में बोलते हैं, लिखते हैं, गीत गाते हैं। ये प्रेम की कमी को पूरा करने के उपाय हैं। जिन्होंने प्रेम को जान लिया, वे शायद चुप भी रह जाएं; या अगर कुछ कहें तो शायद तुम्हारी समझ में न पड़े, बेबूझ मालूम पड़े, क्योंकि तुमने भी प्रेम तो जाना नहीं; जिसने जानकर कहा है, उसकी बात तुम्हें जंचेगी नहीं। __ मैंने सुना है, एक नाव पड़ी थी एक नदी के किनारे और चार कछुए छलांग लगाकर उसमें बैठ गए। हवा तेज थी, उनके धक्के से नाव चल पड़ी, वे बड़े प्रसन्न हुए। लेकिन एक बड़ा दार्शनिक सवाल उठ आया कि नाव कौन चला रहा है? हम तो नहीं चला रहे। एक कछुए ने कहा, नदी चला रही है। देखते नहीं? नदी की धार बही जा रही है, वही नाव को लिए जा रही है। दूसरे ने कहा, पागल हुए हो? यह हवा है, नदी नहीं, जो नाव को चला रही है। बड़ा विवाद छिड़ गया। तीसरे ने कहा, यह सब भ्रम है—वह और भी बड़ा दार्शनिक रहा होगा—यह सब भ्रम है; न हवा चला रही है, न नदी चला रही है; न कोई चल रहा, न कहीं कोई जा रहा, यह सब सपना है; हम नींद में देख रहे हैं। . चौथा लेकिन चुप रहा। उन तीनों ने चौथे की तरफ देखा और कहा, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? लेकिन चौथा फिर भी चुप रहा; उसने कहा, मुझे कुछ भी पता नहीं। __ उसकी यह बात सुनकर वे जो तीनों आपस में लड़ रहे थे, सब साथी हो गए, और उस चौथे को उन्होंने धक्का देकर नदी में गिरा दिया कि बड़ा समझदार बना बैठा है। उसने बेचारे ने इतना ही कहा था कि मुझे कुछ पता नहीं, कौन चला रहा है। उसने बड़े गहरे अनुभव की बात कही थी। किसको पता है, कौन चला रहा है? पता हो भी कैसे सकता है। वेद के ऋषियों ने कहा है, किसने बनाया इस जगत को, कौन कहे? कैसे कहे? किसको पता है? जिसने बनाया हो, शायद उसे पता हो, शायद उसे भी पता न हो। बड़ी अनूठी बात कही है: शायद उसे पता हो, शायद उसे भी पता न हो। क्योंकि बना लेने से ही कुछ पता चल जाता है, ऐसा तो नहीं। 281

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